Shrimad Bhagwat Geeta: अध्याय 4 ज्ञान कर्म संन्यास योग का रहस्यमय अद्भूत ज्ञान और उसका संदेश! Bhagwat Geeta Adhyay 4 in Hindi
जय श्री कृष्ण! मित्रों, श्रीमद्भगवद्गीता सनातन धर्म की सबसे महत्वपूर्ण एवं पवित्र ग्रंथों में से एक है। यह हमारे सनातन संस्कृति की सबसे अनमोल धरोहर है, जो अपने अंदर बहुत सारे ज्ञान को समेटे हुए है और इसमें भगवान श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को दिए गए उपदेशों में जीवन की सभी समस्याओं का समाधान छिपा है। गीता के 18 अध्यायों में से एक महत्वपूर्ण अध्याय है "ज्ञान कर्म संन्यास योग"। यह अध्याय यानी Bhagwat Geeta Adhyay 4 in Hindi का यह लेख कर्म, ज्ञान और संन्यास की गूढ रहस्यों को स्पष्ट करता है और जीवन के सही मार्ग की ओर प्रेरित करता है। ज्ञान कर्म संन्यास योग में भगवान श्रीकृष्ण ने कर्मयोग और ज्ञानयोग के माध्यम से मोक्ष की प्राप्ति का मार्ग बताया है। यहाँ पर कर्म को त्यागने के बजाय उसे समर्पित भाव से करने की महत्ता पर बल दिया गया है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि कर्म से भागना नहीं चाहिए, बल्कि उसे निष्काम भाव से करना चाहिए। कर्म करते हुए व्यक्ति को उसके फल की चिंता नहीं करनी चाहिए, बल्कि उसे ईश्वर को अर्पण करना चाहिए।
Bhagwat Geeta Adhyay 4 in Hindi | भगवत गीता अध्याय 4 ज्ञान कर्म संन्यास योग
इस प्रकार, ज्ञान कर्म संन्यास योग हमें सिखाता है कि जीवन में संतुलन कैसे बनाए रखें, कर्म करते हुए भी आत्मज्ञान प्राप्त करें और मोक्ष की ओर अग्रसर हों। भगवद गीता का यह अध्याय हमें जीवन के हर क्षेत्र में सफलता प्राप्त करने की दिशा में प्रेरित करता है, बशर्ते हम इसे सही ढंग से समझें और अपने जीवन में लागू करें। आइए फिर हम सभी मिलकर भगवत गीता के इस चौथे अध्याय "ज्ञान कर्म संन्यास योग" व "Bhagwat Geeta Adhyay 4 in Hindi" का अंत तक गहन अध्ययन कर उसमें दी गई दिव्य अमृत ज्ञान को ग्रहण कर तथा अपने लक्ष्य को प्राप्त करने का शुभ अवसर प्राप्त करें।
Bhagwat Geeta Gyan Karm Sanyas Yog in Hindi | ज्ञान कर्म संन्यास योग हिंदी में !
यह अध्याय विशेष रूप से उन लोगों के लिए महत्वपूर्ण है जो जीवन के संघर्षों से घबराकर संन्यास लेना चाहते हैं। श्रीकृष्ण स्पष्ट करते हैं कि सच्चा संन्यास बाहरी वस्त्रों का त्याग नहीं, बल्कि मन के विकारों का त्याग है। ज्ञान का मतलब है सही और गलत का बोध, और यह बोध हमें कर्म करते समय सही निर्णय लेने में मदद करता है।
What is Gyan Karm Sanyaas Yog? | ज्ञान कर्म संन्यास योग क्या है?
भगवद गीता, भारतीय दर्शन और धर्मशास्त्र का एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को कई महत्वपूर्ण उपदेश दिए हैं। उनमें से एक प्रमुख योग है 'ज्ञान कर्म संन्यास योग'। इसका शाब्दिक अर्थ है 'ज्ञान के माध्यम से कर्म का त्याग'। ज्ञान कर्म संन्यास योग के अनुसार, मनुष्य को अपने कर्तव्यों का पालन करते समय उन कर्मों के फलों के प्रति आसक्त नहीं होना चाहिए। इसका मतलब यह है कि हमें कर्म करना चाहिए, लेकिन उनके परिणामों की चिंता नहीं करनी चाहिए। भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को समझाया कि कर्म करना मानव जीवन का अभिन्न हिस्सा है और इससे कोई भी बच नहीं सकता। लेकिन, इन कर्मों को अर्पण की भावना से करना चाहिए, जिससे मनुष्य कर्मबंधन से मुक्त हो सकता है।
ज्ञान का अर्थ है सही दृष्टिकोण और सच्चा ज्ञान, जिससे हम अपने कर्मों को सही ढंग से समझ सकें और उन्हें निष्पक्षता से कर सकें। संन्यास का अर्थ है त्याग, लेकिन यह बाहरी त्याग नहीं बल्कि आंतरिक त्याग है। यह अपने अहंकार, इच्छाओं और कर्म के फलों की आसक्ति का त्याग है। इस योग का मूल उद्देश्य है आत्मा की शुद्धि और परमात्मा की प्राप्ति। जब व्यक्ति अपने कर्मों को निष्काम भाव से करता है, तब वह मोह और माया से परे जाकर सच्चे ज्ञान और मुक्ति की ओर अग्रसर होता है।
Importance of Gyan Karm Sanyaas Yog | ज्ञान कर्म संन्यास योग का महत्व
श्रीमद्भगवद्गीता भारतीय संस्कृति और सनातन धर्म का अनमोल धरोहर है, जिसमें जीवन के हर पहलू का विस्तृत वर्णन है। गीता का चौथा अध्याय "ज्ञान कर्म संन्यास योग" है, जो ज्ञान, कर्म और संन्यास के महत्व को स्पष्ट करता है। आइए जानते हैं इस अध्याय के 6 प्रमुख महत्वंंओं को जोनिम्नप्रकार हैं:
1. दिव्य ज्ञान का महत्व: भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को बताया कि यह ज्ञान उन्होंने पहले सूर्य देव को दिया था, जिससे स्पष्ट होता है कि यह दिव्य ज्ञान अत्यंत प्राचीन और शाश्वत है। यह ज्ञान हमें जीवन के असली उद्देश्य को समझने में मदद करता है और हमें मोक्ष की ओर ले जाता है। |
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2. कर्म का महत्व: इस अध्याय में कर्म के महत्व को भी विस्तार से बताया गया है। श्रीकृष्ण ने कहा है कि हमें अपने कर्तव्यों का पालन बिना किसी फल की इच्छा के करना चाहिए। यह निष्काम कर्मयोग का सिद्धांत है, जो जीवन में संतुलन और शांति लाता है। |
3. अवतार का महत्व: श्रीकृष्ण ने इस अध्याय में अपने अवतार का रहस्य भी उजागर किया है। उन्होंने कहा कि जब-जब धर्म की हानि होती है और अधर्म का प्रकोप बढ़ता है, तब-तब वह धर्म की स्थापना और सज्जनों की रक्षा के लिए अवतार लेते हैं। यह हमें यह समझने में मदद करता है कि भगवान हर युग में मानवता की रक्षा के लिए उपस्थित होते हैं। |
4. गुरु का महत्व: श्रीकृष्ण ने अर्जुन को बताया कि आत्म-ज्ञान प्राप्त करने के लिए गुरु का मार्गदर्शन आवश्यक है। एक सच्चा गुरु हमें ज्ञान का सही मार्ग दिखाता है और हमें आत्म-साक्षात्कार की ओर ले जाता है। गुरु-शिष्य परंपरा का महत्व इस अध्याय में विशेष रूप से उल्लेखित है। |
5. संन्यास का सही अर्थ एवं महत्व: श्रीमद्भगवद्गीता के चौथे अध्याय में संन्यास का सही अर्थ बताया गया है। संन्यास का मतलब केवल भौतिक वस्तुओं और कर्तव्यों का त्याग नहीं है, बल्कि मन, बुद्धि और आत्मा से सभी प्रकार के आसक्तियों का त्याग है। संन्यास का महत्व यह भी है कि आत्म-ज्ञान की प्राप्ति का सबसे उच्चतम मार्ग है। |
6. ज्ञान और अज्ञान का संघर्ष का महत्व: इस अध्याय में ज्ञान और अज्ञान के बीच के संघर्ष और महत्व को भी स्पष्ट किया गया है। श्रीकृष्ण ने कहा है कि ज्ञान ही अज्ञान को नष्ट कर सकता है और आत्म-ज्ञान ही हमें जीवन की सच्ची समझ दे सकता है। ज्ञान का दीपक हमें अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाता है। |
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श्रीमद्भगवद्गीता का चौथा अध्याय "ज्ञान कर्म संन्यास योग" जीवन के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डालता है और हमें आत्म-ज्ञान, निष्काम कर्म, और संन्यास की उच्चतम स्थिति की ओर प्रेरित करता है। इस अध्याय के अध्ययन से हमें जीवन को सही दृष्टिकोण से जीने की प्रेरणा मिलती है और मोक्ष की ओर अग्रसर होने का मार्ग मिलता है।
श्रीमद्भगवद्गीता का यह अध्याय हमारे जीवन को समृद्ध और सार्थक बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इसे अपने जीवन में अपनाकर हम सच्चे सुख और शांति की अनुभूति कर सकते हैं। आइए अब इस अध्याय का अध्ययन कर अपने भविष्य को उज्जवल भविष्य की ओर ले जाने का प्रयास करें।
Shrimad Bhagwat Geeta Gyan Karm Sanyaas Yog Shlok 1-10 | भगवत गीता अध्याय 4 श्लोक १-१०
श्रीभगवानुवाच:- इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम् । विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत् ॥१॥ |
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भगवत गीता अध्याय 4 ज्ञान कर्म संन्यास योग हिंदी संस्करण:- भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं:- मैंने इस अमर योगविद्या व गीता का दिव्य ज्ञान सूर्यदेव विवस्वान् को दिया था और सूर्यदेव ने मनुष्यों के पिता मनु को इस गीता का उपदेश ज्ञान दिया था और फिर मनु ने इस गीता का उपदेश ज्ञान अपने पुत्र (राजा इक्ष्वाकु) को दिया था । (प्रथम श्लोक) |
एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः । स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप ॥२॥ |
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भगवत गीता अध्याय 4 ज्ञान कर्म संन्यास योग हिंदी संस्करण:- इस प्रकार यह परम विज्ञान (गीता का दिव्य अमृत ज्ञान) गुरु-परंपरा द्वारा प्राप्त किया गया और राजर्षियों (साधु-राजाओं) ने इसी दिव्य ज्ञान को गुरु-परंपरा यानी कि गुरु-शिष्य की परम्परा विधि से समझा। किन्तु समय के चक्र कालक्रम में यह परम्परा छिन्न-भिन्न हो गई, अतः यह दिव्य ज्ञान उपदेश में यथारूप में लुप्त हो गया। (द्वितीय श्लोक) |
स एवायं तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः । भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम् ॥३॥ |
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भगवत गीता अध्याय 4 ज्ञान कर्म संन्यास योग हिंदी संस्करण:- आज मेरे द्वारा वही यह अत्यंत प्राचीन योग (पुनः गीता का दिव्य ज्ञान उपदेश) कहा जा रहा है, जिस योग विज्ञान से परमात्मा को भी प्राप्त किया जा सकता है। इस ज्ञान को मैं तुम्हें इसलिए दे रहा हूं, क्योंकि तुम मेरे प्रिय भक्त तथा मित्र हो, अतः तुम इस विज्ञान व गीता उपदेश के अत्यंत दिव्य रहस्य को समझ सकते हो। (तृतीय श्लोक) |
अर्जुन उवाच:- अपरं भवतो जन्म परं विवस्वतः । कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति ॥४॥ |
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भगवत गीता अध्याय 4 ज्ञान कर्म संन्यास योग हिंदी संस्करण:- अर्जुन ने कहा - आप तो कह रहे हैं कि आपने इस दिव्य ज्ञान को सर्वप्रथम सूर्यदेव विवस्वान् को दिया था। लेकिन सूर्यदेव का जन्म तो आपके जन्म से पहले ही हुआ था। वह आपसे ज्येष्ठ (बड़े, आप से पहले जन्मे) हैं, तो फिर मैं कैसे समझूं कि इस विद्या के उपदेश को प्रारंभ में आपने सूर्यदेव को दिया था। (चतुर्थ श्लोक) |
श्रीभगवानुवाच:- बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन । तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप ॥५॥ |
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भगवत गीता अध्याय 4 ज्ञान कर्म संन्यास योग हिंदी संस्करण:- भगवान श्रीकृष्ण ने कहते हैं - हे अर्जुन! तुम्हारे और मेरे अनेकों बार जन्म हो चुका है। मुझे तो उन सभी पिछले जन्मों का ज्ञान है क्योंकि मुझे मेरे और तुम्हारे सभी पिछले जन्म स्मरण हैं। किंतु हे परन्तप अर्जुन! तुम्हें पता नहीं है क्योंकि तुम्हें उनका स्मरण नहीं है। यहां भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं कि हे अर्जुन मेरा और तुम्हारा बहुत बार जन्म हो चुका है, मुझे उन सारे पिछले जन्म याद है। मैं सब जानता हूं लेकिन अर्जुन तुम्हें उन पिछले जन्मों के बारे में कुछ नहीं मालूम, क्योंकि तुम्हें वो सब याद ही नहीं है, तुम अपने समस्त पिछले जन्मों को भूल गए हो। (पंचम श्लोक) |
अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन् । प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया ॥६॥ |
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भगवत गीता अध्याय 4 ज्ञान कर्म संन्यास योग हिंदी संस्करण:- यद्यपि मैं अजन्मा तथा अविनाशी हूं और मैं ही समस्त जीवों का स्वामी हूं, तो भी मैं प्रत्येक युग में सृष्टि को अपने अधीन रखते हुए भी अपने आदि दिव्य रूप में प्रकट होता हूं। भगवान श्रीकृष्ण यह कहना चाहते हैं कि भले ही वे पूरी सृष्टि के सृजनकर्ता हैं तथा समस्त ब्रह्माण्ड को अपने अधीन में रखते हैं लेकिन फिर भी वे हर युग में किसी न किसी रूप में अवतार लेकर आते हैं या स्वयं को प्रकट करते हैं। (षष्ठम श्लोक) |
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत । अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥७॥ |
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भगवत गीता अध्याय 4 ज्ञान कर्म संन्यास योग हिंदी संस्करण:- हे भरतवंशी अर्जुन! जब-जब धर्म का पतन, विनाश अर्थात् हानि होती है और अधर्म बहुत अधिक बढ़ जाता है, तब-तब मैं स्वयं को प्रकट करता हूं तथा अवतार लेता हूं। (सप्तम श्लोक) |
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् । धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥८॥ |
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भगवत गीता अध्याय 4 ज्ञान कर्म संन्यास योग हिंदी संस्करण:- अपने भक्तों का उद्धार करने के लिए, दुष्टों का विनाश करने के लिए तथा धर्म को पुनः से स्थापित करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूं। (अष्टम श्लोक) |
जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः । त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ॥९॥ |
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भगवत गीता अध्याय 4 ज्ञान कर्म संन्यास योग हिंदी संस्करण:- हे अर्जुन! जो मेरे आविर्भाव व मेरी वास्तविकता तथा कर्मों की दिव्य प्रकृति को जानता है, वह अपने शरीर को छोड़ने के पश्चात यानी मृत्यु को प्राप्त होने के बाद पुनः इस भौतिक जगत में फिर से जन्म नहीं लेता, बल्कि वह व्यक्ति मेरे सत्य सनातन धाम में प्रवेश पाता है अर्थात् वह व्यक्ति मोक्ष को प्राप्त होता है। (नवम श्लोक) |
वीतरागभयक्रोधा मन्मया मामुपाश्रिताः । बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः ॥१०॥ |
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भगवत गीता अध्याय 4 ज्ञान कर्म संन्यास योग हिंदी संस्करण:- आसक्ति अर्थात् किसी वस्तु या व्यक्ति से अत्यधिक प्रेम व लगाव, भय तथा क्रोध से मुक्त होकर, मुझमें पूर्णतया तन्मय होकर पूर्ण रूप से मुझपर आस्था व विश्वास रखते हुए और मेरी शरण में आकर बहुत से लोग भूतकाल में मेरे ज्ञान से पवित्र हो चुके हैं। इस प्रकार से उन सभी लोगों ने मेरे प्रति दिव्य प्रेम को प्राप्त किया है। (दशम श्लोक) |
Shrimad Bhagwat Geeta Gyan Karm Sanyaas Yog Shlok 11-20 | भगवत गीता अध्याय 4 श्लोक ११-२०
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् । मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ॥११॥ |
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भगवत गीता अध्याय 4 ज्ञान कर्म संन्यास योग हिंदी संस्करण:- जिस भी भाव से लोग मेरी शरण ग्रहण करते हैं, मैं भी उसी के अनूरूप उन्हें फल देता हूं। हे पार्थ, हे अर्जुन! हर व्यक्ति सभी प्रकार से मेरे पथ का ही अनुगमन करता है। यहां पर भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से यही कह रहे हैं कि वे (श्रीकृष्ण) ही सर्वव्यापी परब्रह्म हैं, लोग उनको जिस भी भाव (विविध देवी-देवताओं के रूप में) से अपनाते हैं, वे परमात्मा यानी योगेश्वर भगवन श्रीकृष्ण भी उन्हीं देवी-देवताओं के अनुरूप ही उन्हें उनका फल देते हैं। यहां हर व्यक्ति श्रीकृष्ण यानी परब्रह्म को ही किसी न किसी देवी-देवता रूप में अपनाता है और उनका ही अनुसरण करते हैं। (11वें श्लोक) |
काङ्क्षन्तः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवताः । क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा ॥१२॥ |
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भगवत गीता अध्याय 4 ज्ञान कर्म संन्यास योग हिंदी संस्करण:- इस संसार में मनुष्य सकाम कर्मों में सिद्धि चाहते हैं, अर्थात् कुछ भी कर्म करने से पहले ही उसके फल यानी परिणाम के बारे में ही सोच कर कर्म करते हैं, फलस्वरूप वे सकाम कर्म फल की प्राप्ति के लिए ही देवी-देवताओं की पूजा करते हैं। देवी-देवता इससे प्रसन्न होकर मनुष्य को सकाम कर्म का फल शीघ्र ही प्रदान करते हैं। (12वें श्लोक) |
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः । तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम् ॥१३॥ |
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भगवत गीता अध्याय 4 ज्ञान कर्म संन्यास योग हिंदी संस्करण:- प्रकृति के तीनों गुणों- सतोगुण, रजोगुण एवं तमोगुण और उनसे संबंधित कर्म के अनुसार ही मैंने ही मानव समाज के कल्याण हेतु चार वर्ण विभाग व व्यवस्था ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शुद्र रचे गये हैं। यद्यपि मैं ही इस व्यवस्था का सृष्टा (स्रष्टा व रचयिता) हूं, किंतु तुम यह जान लो कि इतने पर भी अव्यय अकर्ता हूं। भगवान यहां पर बता रहे हैं कि वे इस समस्त ब्रह्माण्ड के रचयिता हैं और उन्होंने ही मानव समाज के कल्याण के लिए चार विभाग बनाये हैं, जिससे मनुष्य अपने कर्मफल की प्राप्ति प्रकृति के तीनों गुणों के अनुसार ही प्राप्त करता है। हालांकि परमात्मा (परब्रह्म व ईश्वर) को कुछ भी कर्म करने की कोई आवश्यकता नहीं होती लेकिन फिर भी वे खुद को सदैव अकर्ता मानते हुए निरंतर कर्म करते रहते हैं। (13वें श्लोक) |
न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा । इति मां योऽभिजानाति कर्मर्भिन स बध्यते ॥१४॥ |
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भगवत गीता अध्याय 4 ज्ञान कर्म संन्यास योग हिंदी संस्करण:- मुझ पर किसी भी प्रकार के कर्म का प्रभाव नहीं पड़ता और न ही मैं कभी कर्मफल की कामना रखता हूं। जो कोई भी मेरे सम्बन्ध (मुझको व मेरे बारे में) में इस सत्य को जानता है, वह भी कभी कर्मफलों के बन्धनों में नहीं बंधता । (14वें श्लोक) |
एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः । कुरु कर्मैव तस्मात्त्वं पूर्वैः पूर्वतरं कृतम् ॥१५॥ |
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भगवत गीता अध्याय 4 ज्ञान कर्म संन्यास योग हिंदी संस्करण:- प्राचीन काल में समस्त मुक्तात्माओं (मोक्ष को प्राप्त कर चुके लोगों की आत्माओं) ने मेरी दिव्य प्रकृति को जानकर ही कर्म किया, परिणामस्वरूप उनकी आत्माएं परमात्मा विलीन हो गई यानी वे मोक्ष को प्राप्त हुये। अतः तुमको भी उनके पदचिन्हों का अनुसरण करते हुए अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए। (15वें श्लोक) |
किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः । तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् ॥१६॥ |
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भगवत गीता अध्याय 4 ज्ञान कर्म संन्यास योग हिंदी संस्करण:- कर्म क्या है और अकर्म क्या है? इसे निश्चित करने में बुद्धिमान व्यक्ति भी मोहग्रसत हो जाते हैं। अतएव मैं तुम्हें बताऊंगा कि कर्म क्या है? जिसको जानकर तुम अपने सभी अशुभ चिंताओं व मोह से मुक्त हो जाओगे, जिससे तुम्हारा उद्धार भी होगा। (16वें श्लोक) |
कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं च विकर्मणः । अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः ॥१७॥ |
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भगवत गीता अध्याय 4 ज्ञान कर्म संन्यास योग हिंदी संस्करण:- कर्म की बारीकियों को समझना अत्यंत कठिन होता है, लेकिन फिर भी उन कर्मों को समझने की आवश्यकता होती ही है। अतः मनुष्य को चाहिए कि वह यह ठीक से समझ ले कि कर्म (उसका अपना कर्म व काम) क्या है? विकर्म यानी विशेष कर्म क्या है और अकर्म (कर्म न करना व बिना कार्य का कर्म) क्या है? (17वें श्लोक) |
कर्मण्यकर्म य: पश्येदकर्मणि च कर्म य: । स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्त: कृत्स्नकर्मकृत् ॥१८॥ |
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भगवत गीता अध्याय 4 ज्ञान कर्म संन्यास योग हिंदी संस्करण:- जो कोई भी मनुष्य कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म को देखता है, वह सभी मनुष्यों में बुद्धिमान है और वह सब प्रकार (सभी तरह) के कर्मों में प्रवृत्त रहकर भी दिव्य स्थिति में रहता है। तात्पर्य यह है कि ऐसा मनुष्य हर कर्म को पूरी निष्ठा पूर्वक करता है लेकिन उसके कर्मफल की आशा बिल्कुल भी नहीं करता, बल्कि वो उस कर्म को अपना कर्तव्य समझ कर करता है और कोई भी कर्म करके अपने आप कभी भी उस कर्म का कर्ता नहीं समझता। (18वें श्लोक) |
यस्य सर्वे समारम्भाः कामसङ्कल्पवर्जिताः । ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहु: पण्डितं बुधाः ॥१९॥ |
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भगवत गीता अध्याय 4 ज्ञान कर्म संन्यास योग हिंदी संस्करण:- जिस व्यक्ति का हर प्रयास इंद्रियतृप्ति यानी शरीर को खुश रखने वाली सभी चीजों की कामना से रहित होता है, जिसका मन भोग-विलास व वासना जैसे इच्छाओं के वश में नहीं रहता। ऐसे मनुष्य को पूर्णज्ञानी समझा जाता है। उसे ही साधु व सिद्ध पुरुष ऐसा कर्ता कहते हैं, जिसने पूर्णज्ञान की अग्नि से अपने कर्मफलों की आहुति दे दी। (19वें श्लोक) |
त्यक्त्वा कर्मफलासङ्ग नित्यतृप्तो निराश्रय: । कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किञ्चित्करोति स: ॥२०॥ |
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भगवत गीता अध्याय 4 ज्ञान कर्म संन्यास योग हिंदी संस्करण:- अपने कर्मफलों की सारी आसक्ति यानी मोह और लगाव को त्याग कर सदैव संतुष्ट तथा स्वतंत्र रहकर वह सभी प्रकार के कार्यों में व्यस्त रहकर सकाम कर्म नहीं करता। अर्थात् वह बुद्धिमान मनुष्य कोई भी कार्य कर्मफल की आशा की चिंता किये बिना ही करता है। (20वें श्लोक) |
Shrimad Bhagwat Geeta Gyan Karm Sanyaas Yog Shlok 21-30 | भगवत गीता अध्याय 4 श्लोक २१-३०
निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रहः । शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् ॥२१॥ |
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भगवत गीता अध्याय4 ज्ञान कर्म संन्यास योग हिंदी संस्करण:- ऐसा ज्ञानी पुरुष पूर्णरूप से संयमित मन (स्थिर मन) तथा बुद्धि (विवेक) से कार्य करता है, वह अपनी सम्पत्ति के सारे स्वामित्व को त्याग देता है और केवल शरीर-निर्वाह के लिए कर्म करता है। इस तरह कार्य करता हुआ वह मनुष्य पाप रूपी फलों से प्रभावित नहीं होता है। (21वें श्लोक) |
यदृच्छालाभसन्तुष्टो द्वन्द्वतीतो विमत्सरः । समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते ॥२२॥ |
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भगवत गीता अध्याय 4 ज्ञान कर्म संन्यास योग हिंदी संस्करण:- जो स्वत: होने वाले लाभ से संतुष्ट हैं, जो द्वन्द्व अर्थात् लाभ-हानि व सुख-दुःख से मुक्त है और किसी से ईर्ष्या नहीं करता, जो सफलता तथा असफलता दोनों ही अवस्था में स्थिर व एक समान रहता है, वह कर्म करता हुआ भी कभी कर्मबन्धन में नहीं बंधता। (22वें श्लोक) |
गतसङ्गस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतसः । यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते ॥२३॥ |
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भगवत गीता अध्याय 4 ज्ञान कर्म संन्यास योग हिंदी संस्करण:- जो मनुष्य प्रकृति के गुणों के प्रति अनासक्त है और जो दिव्य ज्ञान में पूर्णतया स्थित है, उसके सारे कर्म ब्रह्म में लीन हो जाते हैं। । भगवान श्रीकृष्ण यहां कहना चाहते हैं कि जो कोई भी व्यक्ति प्रकृति के तीनों गुणों - सतोगुण, रजोगुण एवं तमोसगुण के प्रभाव से खुद को प्रभावित नहीं करता जो सुख-दु:ख सदैव समान भाव रखता है, न ही वह किसी के प्रति वैर या घृणा रखता है और न ही वह कभी वासना में लिप्त रहता है। ऐसा व्यक्ति सत्य को जानने वाला होता है, जो दिव्य ज्ञान अर्थात परमात्मा के वास्तविकता एवं सत्य को जान चुका होता है। इसलिए वह कोई भी कार्य खुद को अकर्ता मानते हुए करता है और इस प्रकार उसके सारे कर्म ब्रह्म यानी परमात्मा में ही लीन हो जाते हैं। (23वें श्लोक) |
ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम् । ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना ॥२४॥ |
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भगवत गीता अध्याय 4 ज्ञान कर्म संन्यास योग हिंदी संस्करण:- जो व्यक्ति परमात्मा की भक्ति में पूर्णतया लीन रहता है, उसे अपने आध्यात्मिक कर्मों के योगदान के कारण आवश्य ही परमधाम (मोक्ष) की प्राप्ति होती है, क्योंकि उसके द्वारा किये गये आध्यात्मिक कर्म से वो अपनी आत्मा को अपने गंतव्य (मोक्ष के द्वार) तक पहुंचने योग्य बना लेता है। (24वें श्लोक) |
दैवमेवापरे यज्ञं योगिनः पर्युपासते । ब्रह्माग्नावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुह्वति ॥२५॥ |
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भगवत गीता अध्याय 4 ज्ञान कर्म संन्यास योग हिंदी संस्करण:- कुछ योगी (मुनि) विभिन्न प्रकार के यज्ञों द्वारा देवी-देवताओं की भली-भांति पूजा अर्चना करते हैं और कुछ योगी परब्रह्म रूपी अग्नि में आहुति डालते हैं। (25वें श्लोक) |
श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु जुह्वति । शब्दादीन्विषयानन्य इन्द्रियाग्निषु जुह्वति ॥२६॥ |
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भगवत गीता अध्याय 4 ज्ञान कर्म संन्यास योग हिंदी संस्करण:- इनमें से कुछ (विशुद्ध ब्रह्मचारी) श्रवणादि क्रियाओं तथा इन्द्रियों को मन की नियंत्रण रूपी अग्नि में आहुति दे देते हैं तो दूसरे लोग (गृहस्थ जीवन को जीने वाले) इंद्रियविषयों को इन्द्रियों की अग्नि में स्वाहा कर देते हैं। भगवान श्रीकृष्ण ये कह रहे हैं कि ऐसे भी कुछ विशुद्ध ब्रह्मचारी होते हैं अपने मन को नियंत्रित करने में सक्षम होते हैं और वे अपने मन के मुताबिक अपनी इंद्रियों को वश में रखते हैं तो दूसरी ओर कुछ (वैवाहिक लोग) अपने मन को नियंत्रित करने में सक्षम नहीं होते तो ऐसे में उनका मन ही उनको नियंत्रित रखता है और मन हमेशा इंद्रियतृप्ति के विषय में ही फंसकर रह जाता है। (26वें श्लोक) |
सर्वाणीन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि चापरे । आत्मसंयमयोगाग्नौ जुह्वति ज्ञानदीपिते ॥२७॥ |
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भगवत गीता अध्याय 4 ज्ञान कर्म संन्यास योग हिंदी संस्करण:- दूसरे लोग, जो अपने मन तथा इन्द्रियों को वश में करके आत्म-साक्षात्कार करना चाहते हैं, वे लोग सम्पूर्ण इन्द्रियों तथा प्राणवायु के कार्यों को संयमित मन रूपी अग्नि में आहुति कर देते हैं अर्थात वे लोग अपने ज्ञान से खुद को इतना सक्षम बना लेते हैं कि अपने मन को पूर्णतः नियंत्रण कर पाते हैं और वो अपने संयमित मन से सम्पूर्ण इन्द्रियों तथा प्राणवायु (सांस लेने और सांस छोड़ने के कार्य यानी वे अपने सांसो पर भी नियंत्रण प्राप्त कर सकते हैं) के कार्यों को भी नियंत्रण कर पाते हैं। सामान्य भाषा में कहें तो साधारण मनुष्य अपने सांसों पर नियंत्रण कर पाने में असक्षम होता है, अगर कुछ पल के लिए ही अपनी सांसों को रोक ले तो वह दम तोड़ देगा। किन्तु अपने मन से इन्द्रियों को वश में करने वाले सिद्ध पुरुष (योगी व महात्मा) इतना संयमित मन वाला बन जाता है जो अपनी सांसों को भी नियंत्रित कर सकता है, वह बिना सांस लिये बिना भी लंबे समय तक रह सकता है। (27वें श्लोक) |
द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे । स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतयः संशितव्रताः ॥२८॥ |
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भगवत गीता अध्याय 4 ज्ञान कर्म संन्यास योग हिंदी संस्करण:- कुछ लोग कठोर व्रत अंगीकार करके, कुछ लोग अपनी सम्पत्ति का त्याग करके, कुछ लोग अपनी कठिन तपस्या द्वारा, कुछ लोग अष्टांग योगपद्धति के अभ्यास के द्वारा अथवा दिव्यज्ञान में उन्नति करने के लिए वेदों के अध्ययन द्वारा प्रबुद्ध बनते हैं। भगवान श्रीकृष्ण यहां पर अर्जुन के मध्यम से हम सभी से बहुत बड़ी बात कह रहे हैं कि मनुष्य (हम लोग) विभिन्न प्रकार के कर्मों (क्रियाओं) को करके भी परमात्मा को प्राप्त कर सकता है। जैसे भगवान में आस्था रखते हुए कठोर व्रत करने से, अपनी धन-संपत्ति का त्याग कर जरूरत की सेवा करने से, ब्रह्म की प्राप्ति हेतु कठिन तपस्या करने से, अपने गुरुओं व ज्ञानी पुरुषों से परमात्मा के प्रति (विषय में) ज्ञान प्राप्त करने से तथा स्वयं ही वेदों के स्वाध्याय से उनमें वर्णित ज्ञान (वेदों में बताये गये उचित कर्मों को करने का ज्ञान जानकर) को अपनाते हुए कर्म करके भी अपने जीवन में अपने विवेक से इन्द्रियों को वश में रखते हुए मोक्ष की प्राप्त कर सकते हैं। (28वें श्लोक) |
अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे । प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः । अपरे नियताहाराः प्राणान्प्राणेषु जुह्वति ॥२९॥ |
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भगवत गीता अध्याय 4 ज्ञान कर्म संन्यास योग हिंदी संस्करण:- अन्य लोग ऐसे भी हैं जो समाधि में रहने के लिए प्रणायाम द्वारा अपनी सांसों को रोके रखते हैं। वे अपान में प्राण को और प्राण में अपान को रोकने का अभ्यास करते रहते हैं और अंत में प्राण-अपान को रोककर समाधि में लगे रहते हैं। वहीं कुछ अन्य योगी कम भोजन ग्रहण करके भी प्राण की प्राण में ही आहुति देते हैं। (29वें श्लोक) |
सर्वेऽप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषाः । यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम् ॥३०॥ | |
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भगवत गीता अध्याय 4 ज्ञान कर्म संन्यास योग हिंदी संस्करण:- ये सभी यज्ञ करने वाले यज्ञों (वेदों में बताये गये उत्तम कार्यों व समाज कल्याण हेतु उचित कर्मों) का अर्थ जानने के कारण पापकर्मों से मुक्त हो जाते हैं और यज्ञों के फलरूपी अमृत को चखकर परम दिव्य आकाश (परम ब्रह्म) की ओर बढ़ जाते हैं। (30वें श्लोक) |
Shrimad Bhagwat Geeta Gyan Karm Sanyaas Yog Shlok 31-40 | भगवत गीता अध्याय 4 श्लोक ३१-४०
नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यः कुरुसत्तम ॥३१॥ |
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भगवत गीता अध्याय 4 ज्ञान कर्म संन्यास योग हिंदी संस्करण:- हे कुरुश्रेष्ठ अर्जुन! जब यज्ञ के बिना मनुष्य इस लोक (पृथ्वी पर) यानी इस जीवन में ही सुखीपूर्वक नहीं रह सकता, तो फिर अगले जन्म या किसी अन्य लोक में कैसे सुख से रह सकता है? (31वें श्लोक) |
एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे । कर्मजान्विद्धि तान्सर्विनेवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे ॥३२॥ |
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भगवत गीता अध्याय 4 ज्ञान कर्म संन्यास योग हिंदी संस्करण:- ये विभिन्न प्रकार के यज्ञ वेदसम्मत (वेदों में वर्णित सभी प्रकार के कर्म) हैं और ये सभी विभिन्न प्रकार के कर्मों से उत्पन्न हैं। इन्हें इस रूप में जानने से तुम भी कर्मबन्धन से मुक्त हो जाओगे। (32वें श्लोक) |
श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परन्तप । सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते ॥३३॥ |
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भगवत गीता अध्याय 4 ज्ञान कर्म संन्यास योग हिंदी संस्करण:- हे परन्तप अर्जुन! द्रव्ययज्ञ (जैसे घी इत्यादि को यज्ञ में अर्पित किये जाते हैं) से ज्ञान श्रेष्ठ है। हे पार्थ! अन्ततोगत्वा (आखिर में) सारे कर्मयज्ञों का अवसान (ठहराव) दिव्य ज्ञान में ही होता है। भगवान श्रीकृष्ण कह रहे हैं कि यज्ञों को करने से भी बढ़कर ज्ञान होता है और इस ज्ञानयज्ञ (ज्ञान से कर्म) करने से सारे कर्मबन्धन से छुटकारा पाया जा सकता है। (33वें श्लोक) |
तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया । उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः ॥३४॥ |
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भगवत गीता अध्याय 4 ज्ञान कर्म संन्यास योग हिंदी संस्करण:- तुम तत्वदर्शी गुरु के पास जाकर उस सत्य को जानने का प्रयास करो। उनसे विनीत होकर जिज्ञासा करो तथा उनकी सेवा करो। इसके फलस्वरूप वे (तुम्हारे गुरु) तुमको ज्ञान प्रदान कर सकते हैं, क्योंकि उन्हें सत्य का ज्ञान होता है। इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं कि हमें भी अपने जीवन में सत्य को स्वीकार करना चाहिए और इसके लिए हमें सत्य को जानने वाले यानी तत्वदर्शी गुरुओं व महात्माओं के पास जाकर उनसे उस ज्ञान को ग्रहण करना चाहिए, विनम्रतापूर्वक अपनी जिज्ञासा उन्हें बतानी चाहिए तथा उनकी सेवा करनी चाहिए। इसके फलस्वरूप वे हमें भी उस तत्वज्ञान को दें सकते हैं, जो उनके पास होता है। (34वें श्लोक) |
यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव । येन भूतान्यशेषाणि द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि ॥३५॥ |
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भगवत गीता अध्याय 4 ज्ञान कर्म संन्यास योग हिंदी संस्करण:- स्वरूपसिद्ध (सामान्य व्यक्ति) मनुष्य से वास्तविक ज्ञान को प्राप्त करने के पश्चात तुम पुनः कभी भी ऐसे मोह को प्राप्त नहीं करोगे क्योंकि इस ज्ञान के द्वारा तुम अपने स्वयं को देख सकोगे, खुद को जान पाओगे। तुम यह भी समझ पाओगे कि सभी जीव मुझ परमपिता परब्रह्म परमेश्वर का ही अंश हैं अर्थात् सभी जीवों में मेरा ही वास है। |
अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः । सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं सन्तरिष्यसि ॥३६॥ |
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भगवत गीता अध्याय 4 ज्ञान कर्म संन्यास योग हिंदी संस्करण:- यदि तुम्हें समस्त पापियों में भी सर्वाधिक पापी समझा जाये तो तुम भी दिव्यज्ञान रूपी नाव में सवार होकर दुःखों के सागर को पार करने में समर्थ हो जाओगे। भगवान श्रीकृष्ण इस श्लोक में कह रहे हैं कि अगर मनुष्य को लगता है कि उसने बहुत पाप कर्म किया है, यज्ञ जैसे कर्म उसने कभी नहीं किया है उसके बावजूद भी अगर उसने इस ज्ञान को समझ लिया तो वह भी इस संसार की मोह-माया जैसे कर्मबन्धन के बन्धनों से मुक्त हो जाने में सफल हो पायेगा। (36वें श्लोक) |
यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मात्कुरुतेऽर्जुन । ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा ॥३७॥ |
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भगवत गीता अध्याय 4 ज्ञान कर्म संन्यास योग हिंदी संस्करण:- हे अर्जुन! जैसे जलती हुई अग्नि ईंधन को भस्म कर देती है, ठीक उसी तरह ज्ञान रूपी अग्नि भी भौतिक कर्मों के समस्त फलों को जला देती है। अर्थात् तत्वज्ञान या सत्यज्ञान को जानने के पश्चात हम अपने कर्म बन्धन से मुक्त हो जाते हैं, क्योंकि तब हम कोई भी कर्म निष्काम भाव से खुद को अकर्ता तथा अपना कर्तव्य मानते हुए कर्म करते हैं और उस कर्मफल की आशा ही त्याग देते हैं । (37वें श्लोक) |
न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते । तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति ॥३८॥ |
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भगवत गीता अध्याय 4 ज्ञान कर्म संन्यास योग हिंदी संस्करण:- सारे संसार में इस दिव्य ज्ञान से बढ़कर तथा इससे पवित्र कुछ भी नहीं है अर्थात् इस दिव्य ज्ञान की तुलना किसी भी व्यक्ति या वस्तु से नहीं की जा सकती। यह दिव्य ज्ञान अपने आप में ही समस्त योग का परिपक्व फल है। जो व्यक्ति भक्ति में सिद्ध हो जाता है, यथासमय अपने अन्तर में इस ज्ञान का आस्वादन करता है। (38वें श्लोक) |
श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः । ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति ॥३९॥ |
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भगवत गीता अध्याय 4 ज्ञान कर्म संन्यास योग हिंदी संस्करण:- जो कोई भी श्रद्धालु इस दिव्य ज्ञान में समर्पित है और जिसने अपने इन्द्रियों को वश में कर लिया है, वह इस ज्ञान को प्राप्त करने का अधिकारी है और इस ज्ञान को प्राप्त करते ही वह शीघ्र ही आध्यात्मिक शांति को प्राप्त होता है। (39वें श्लोक) |
अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति । नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः ॥४०॥ |
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भगवत गीता अध्याय 4 ज्ञान कर्म संन्यास योग हिंदी संस्करण:- किन्तु जो अज्ञानी तथा श्रद्धाविहीन, भगवान में आस्था व विश्वास न रखने वाले व्यक्ति, जो शास्त्रों में संदेह करते हैं वे कभी परमधाम व मोक्ष को प्राप्त नहीं कर पाते। बल्कि अपने कर्मफलों की वजह से और नीचे गिर जाते हैं। संशयात्मा यानी भगवान व परमात्मा में संदेह करने वाला व्यक्तियों के लिए न तो इस पृथ्वीलोक में, और न ही परलोक यानी स्वर्ग या नरक में कोई सुख है। अर्थात् ऐसा व्यक्ति किसी भी लोक (पृथ्वी लोक, स्वर्ग लोक एवं नरक लोक) में कभी भी सुख से नहीं रह सकता। (40वें श्लोक) |
Shrimad Bhagwat Geeta Gyan Karm Sanyaas Yog Shlok 41-42 | भगवत गीता अध्याय 4 श्लोक ४१-४२
योगसन्न्यस्तकर्माणं ज्ञानसञ्छिन्नसंशयम् । आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय ॥४१॥ |
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भगवत गीता अध्याय 4 ज्ञान कर्म संन्यास योग हिंदी संस्करण:- लेकिन जो भी मनुष्य अपने कर्मफलों का परित्याग करते हुए भक्ति करता है और जिसके संशय, सवाल व जिज्ञासा दिव्य ज्ञान द्वारा विनष्ट हो चुके होते हैं, वास्तव में वही व्यक्ति आत्मपरायण है। हे धनंजय! ऐसा व्यक्ति कर्मों के बन्धन में नहीं बंधता है। (41वें श्लोक) |
तस्मादज्ञानसम्भूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मन । छित्त्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत ॥४२॥ |
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भगवत गीता अध्याय 4 ज्ञान कर्म संन्यास योग हिंदी संस्करण:- अतः तुम्हारे हृदय में अज्ञानता के कारण जो भी संशय है या जो भी प्रश्न व सवाल उठ रहे हैं, उन्हें तुम इस ज्ञानरूपी शस्त्र से काट डालो। हे भरतवंशी अर्जुन! तुम योग से समन्वित होकर अर्थात् इस दिव्य ज्ञान को ग्रहण कर मोह-माया से मुक्त होकर खड़े हो जाओ और युद्ध करो। (42वें श्लोक) |
इस प्रकार गीता का यह चौथा अध्याय "ज्ञान कर्म संन्यास योग" समाप्त होता है। इस प्रकार, ज्ञान कर्म संन्यास योग हमें सिखाता है कि जीवन में कर्म का महत्व है, लेकिन इन कर्मों को ज्ञान और संन्यास के साथ करना ही सच्चा योग है। अब हम इस अध्याय के पांच महत्वपूर्ण शिक्षाओं को जानने करने का प्रयास करेंगे।
5 Main Teachings of the Fourth Chapter of Bhagavad Gita | गीता के चौथे अध्याय की 5 प्रमुख शिक्षाऐं
श्रीमद्भगवद्गीता, जिसे भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को कुरुक्षेत्र युद्ध के मैदान में उपदेश दिया था, हिंदू धर्म का एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है। गीता के अध्याय 4 को "ज्ञान कर्म संन्यास योग" के रूप में जाना जाता है, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण कर्म, ज्ञान, और संन्यास के माध्यम से आत्म-साक्षात्कार की शिक्षा देते हैं। इस प्रकार अब हम भगवत गीता के चौथे अध्याय की 5 प्रमुख शिक्षाओं पर प्रकाश डालने का प्रयास करेंगे।
1. दिव्य अवतार का महत्व: भगवान श्रीकृष्ण इस अध्याय में अर्जुन को समझाते हैं कि जब-जब धर्म की हानि होती है और अधर्म बढ़ता है, तब-तब वे अवतार लेते हैं। उनका अवतार धर्म की पुनर्स्थापना और अधर्म का नाश करने के लिए होता है। यह सिखाता है कि भगवान हमेशा अपने भक्तों की रक्षा के लिए उपस्थित रहते हैं और समय-समय पर धरती पर अवतरित होते हैं। "यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥" |
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2. ज्ञान का महत्व: अध्याय 4 में श्रीकृष्ण ज्ञान की महत्ता को बताते हैं। वे कहते हैं कि ज्ञान, कर्म से श्रेष्ठ है और सच्चे ज्ञान से व्यक्ति अज्ञान के अंधकार को दूर कर सकता है। इस ज्ञान से व्यक्ति आत्म-साक्षात्कार की ओर अग्रसर होता है और मोक्ष प्राप्त कर सकता है। "न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते। तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति॥" |
3. कर्म योग का महत्व: श्रीकृष्ण कर्म योग की महत्ता को भी स्पष्ट करते हैं। वे बताते हैं कि व्यक्ति को अपने कर्तव्यों का पालन निष्काम भाव से करना चाहिए, अर्थात फल की चिंता किए बिना कर्म करना चाहिए। ऐसा करने से व्यक्ति बंधनों से मुक्त होता है और आत्मसाक्षात्कार की ओर अग्रसर होता है। "कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥" |
4. गुरु की महत्ता: अध्याय 4 में श्रीकृष्ण गुरु के महत्व को भी बताते हैं। वे कहते हैं कि सच्चे ज्ञान की प्राप्ति के लिए व्यक्ति को योग्य गुरु की शरण में जाना चाहिए। गुरु के सान्निध्य में रहकर ही सच्चे ज्ञान और आत्मसाक्षात्कार की प्राप्ति होती है। "तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया। उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः॥" |
5 यज्ञ का महत्व: भगवान श्रीकृष्ण यज्ञ के महत्व पर भी प्रकाश डालते हैं। वे बताते हैं कि सभी कर्म यज्ञ के रूप में किए जाने चाहिए। यज्ञ का अर्थ है, सभी कर्म भगवान को समर्पित करना और समर्पित भाव से करना। ऐसा करने से व्यक्ति के सभी कर्म शुद्ध हो जाते हैं और वह कर्म बंधनों से मुक्त हो जाता है। "यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः। तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसंगः समाचर॥" |
Conclusion of Bhagwat Geeta Chapter 4 | गीता के चौथे अध्याय का निष्कर्ष
श्रीमद्भगवद्गीता का चौथा अध्याय, 'ज्ञान कर्म संन्यास योग', जीवन के गहरे रहस्यों और आध्यात्मिक ज्ञान की महत्वपूर्ण शिक्षाओं से भरपूर है। इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को न केवल कर्म के महत्व को समझाया, बल्कि उसे ज्ञान, कर्म, संन्यास और योग के माध्यम से आत्म-ज्ञान को प्राप्त करने का मार्ग भी दिखाया। इस अध्याय के गहन अध्ययन हमें अपने जीवन में संतुलन, शांति, और समृद्धि प्राप्ति का मार्गदर्शन प्रदान करता है। ज्ञान, कर्म और संन्यास योग की यह अद्वितीय यात्रा आत्म-विकास और आत्म-साक्षात्कार के लिए एक प्रेरणादायक स्रोत है, जो हमें अपने जीवन के हर पहलू में पूर्णता और सुख की अनुभूति कराती है और हमें मोक्ष प्राप्ति ओर ले जाती है। कामना करते हैं कि "Bhagwat Geeta Adhyay 4 in Hindi" के इस लेख अर्थात् गीता के चौथे अध्याय ज्ञान कर्म संन्यास योग से आपको बहुत कुछ सीखने को मिलेगा। गीता का यह अध्याय आपको कैसा लगा? हमें अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दें अब हमारी मुलाकात भगवत गीता के अगले अध्याय में होगी और हां गीता के अगले अध्याय को जानने से पहले इस अध्याय Gyan Karm Sanyaas Yog को अच्छी तरह पढ़कर समझ लें और हां साथ ही इस अध्याय से संबंधित प्रश्नोत्तर को भी अवश्य देखें जिससे आपके मन में इस अध्याय से संबंधित किसी भी प्रकार का संशय उत्पन्न न हो। अब के हमें आज्ञा दीजिए जय श्री कृष्ण!
FAQ : Bhagwat Geeta Chapter 4 | श्रीमद् भागवत गीता प्रश्नोत्तरी - ज्ञान कर्म संन्यास योग
1. चौथे अध्याय में 'कर्म' और 'कर्मयोग' का क्या महत्व है? ॐ: श्रीकृष्ण ने कर्म गीता के चौथे अध्याय में कर्म और कर्मयोग का महत्व बताते हुए कहा है कि व्यक्ति को बिना फल की इच्छा के कर्म करना चाहिए। यही कर्मयोग है और ऐसा करने से आत्मा की शुद्धि होती है। |
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2. अर्जुन के सवाल पर श्रीकृष्ण ने समय की धारा में ज्ञान की निरंतरता कैसे स्पष्ट की? ॐ: श्रीकृष्ण ने अर्जुन को बताया कि उन्होंने यह गीता ज्ञान अनेकों युगों पहले ही सूर्य देव को दिया था और यह ज्ञान गुरु-परंपरा राजा-महाराजाओं के माध्यम से आगे बढ़ा। |
3. भगवान श्रीकृष्ण ने "अवतार" की अवधारणा को कैसे समझाया है? ॐ: श्रीकृष्ण ने कहा है कि जब-जब धर्म की हानि होती है और अधर्म की बहुत अधिक बढ़ जाता है, तब-तब वे अवतार लेते हैं और धर्म की पुनः स्थापना करते हैं। वे धर्म की स्थापना और अधर्म का नाश करने के लिए ही इस संसार में अवतरित होते हैं। |
4. ज्ञान योग तथा कर्म योग क्या है । ॐ: ज्ञान योग और कर्म योग दोनों ही भगवद गीता में बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं:-
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5. ज्ञान योग और कर्म योग में क्या अंतर है? ॐ: ज्ञान योग और कर्म योग में अंतर: ज्ञान योग:
कर्म योग:
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6. गीता के 4 अध्याय (चौथे अध्याय) में कितने श्लोक हैं? ॐ: श्रीमद्भगवद्गीता का अध्याय 4 "ज्ञान और कर्म" के बारे में है, इस अध्याय को 'ज्ञान कर्म संन्यास योग' कहते हैं, जिसको 'दिव्य ज्ञान' भी कहा जाता है। इस अध्याय में कुल 42 श्लोक हैं, जिसमें अर्जुन ने केवल एक ही श्लोक कहा है और शेष 41 श्लोक भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है। |
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7. गीता के अनुसार ज्ञान योग क्या है? ॐ: गीता में भगवान श्रीकृष्ण के उपदेश अनुसार, ज्ञान योग वह योग है जिसमें व्यक्ति आत्मा और परमात्मा के सत्य ज्ञान को प्राप्त करता है और अपने सच्चे स्वरूप को पहचानता है। |
8. भगवान श्रीकृष्ण ने चौथे अध्याय में अर्जुन को क्या उपदेश दिया? ॐ: भगवान श्रीकृष्ण ने गीता के चौथे अध्याय में अर्जुन को बताया कि उन्होंने यह दिव्य ज्ञान सबसे पहले सूर्य देव को दिया था, लेकिन यह ज्ञान समय के साथ लुप्त हो गया था। अब वे इसे पुनः अर्जुन को बता रहे हैं। |
9. गीता के 4 अध्याय में क्या लिखा है? ॐ: गीता के चौथे अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने ज्ञान योग का वर्णन किया है। इस अध्याय में वे अपने विभिन्न अवतारों के बारे में बताते हैं और समझाते हैं कि हर युग में जब अधर्म बहुत अधिक बढ़ जाता है और धर्म की हानि होती है, तब-तब वे अवतरित होते हैं और धर्म की पुनः स्थापना करते हैं। इसके अलावा, वे अर्जुन को निष्काम कर्म का महत्व समझाते हैं और बताते हैं कि ज्ञान और कर्म दोनों मिलकर ही मोक्ष के मार्ग पर सफल होते हैं। |
10. चौथे अध्याय में अर्जुन के प्रति श्रीकृष्ण का विशेष संदेश क्या है? ॐ: गीता के चौथे अध्याय में अर्जुन के प्रति श्रीकृष्ण का विशेष संदेश है कि अर्जुन अपने के क्षत्रिय धर्म और कर्तव्य का पालन निस्वार्थ भाव करे। गीता के चौथे अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को निडर होकर धर्म के मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी और कहा कि हे अर्जुन! तुम्हें अपने कर्तव्य का पालन करते हुए युद्ध करना चाहिए। यही तुम्हारा क्षत्रिय धर्म है। |
11. भगवत गीता के अनुसार सन्यासी कौन है? ॐ: भगवत गीता के अनुसार, सन्यासी वह है जिसने सभी कर्मों का त्याग कर दिया है और जो सदैव केवल परमात्मा में स्थित रहता है, बिना किसी इच्छा या आसक्ति के ही परमात्मा की श्रद्धा में लीन रहता है। |
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12. भगवत गीता अध्याय 4 किस बारे में है? ॐ: भगवत गीता के चौथे अध्याय का नाम ज्ञान कर्म संन्यास योग है, जिसका मुख्य विषय "ज्ञान, कर्म और सन्यास" है। इसमें भगवान श्रीकृष्ण ज्ञान, कर्म और संन्यास के समन्वय के महत्व को विस्तारपूर्वक समझाते हैं। |
13. चौथे अध्याय में श्रीकृष्ण ने कर्म और भक्ति का संबंध किस प्रकार स्पष्ट किया है? ॐ: चौथे अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने कर्म और भक्ति को स्पष्ट करते हुए कहा है कि कर्म और भक्ति का आपस में गहरा संबंध है। भक्ति भाव से किया गया कोई भी कर्म व्यक्ति को ईश्वर के निकट ले जाता है और मोक्ष की ओर अग्रसर करता है।। |
14. गीता अध्याय 4 के श्लोक 34 में क्या लिखा है? ॐ: श्रीमद्भगवद्गीता के चौथे अध्याय ज्ञान कर्म संन्यास योग के 34वें श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं: "तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया। उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिन:॥" अर्थात् "ज्ञान को पाने करने के लिए विनम्रता, सेवा और प्रश्न पूछने से उसके सही उत्तर व सही ज्ञान देने वाले ज्ञानी पुरुष और तत्वदर्शी व्यक्तियों के पास जाकर तुम उनसे ज्ञान लो। वे तुम्हें सत्य का ज्ञान देंगे। |
15. ज्ञान योग का महत्व क्या है? ॐ: ज्ञान योग का महत्व यह है कि यह व्यक्ति को आत्म-साक्षात्कार और मुक्ति की ओर ले जाता है। इसके माध्यम से व्यक्ति अपने सच्चे स्वरूप को पहचानता है और जीवन के अंतिम सत्य को समझता है। |
16. चौथे अध्याय में आत्मा और परमात्मा के संबंध को कैसे समझाया गया है? ॐ: श्रीकृष्ण ने आत्मा और परमात्मा के संबंध को समझाते हुए कहा कि आत्मा अजर-अमर है और परमात्मा का अंश है। यह शरीर नाशवान है, परंतु आत्मा अनन्त है। |
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17. गीता के अनुसार गुरु कौन है? ॐ: श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार, मनुष्य का गुरु कोई भी ज्ञानी और सत्य मार्ग पर चलने वाला व्यक्ति हो सकता है। भगवान श्रीकृष्ण स्वयं अर्जुन के मित्र होने के बावजूद भी गुरु बनकर उसे (अर्जुन को) ज्ञान का मार्ग बतलाते हैं। |
18. मनुष्य का पहला गुरु कौन है? ॐ: मनुष्य के पहले गुरु उसके माता-पिता ही होते हैं, जो अपने बच्चों को अच्छे संस्कार देते हैं। लेकिन भगवान श्रीकृष्ण के अनुसार, गुरु वह व्यक्ति होता है जो तत्वज्ञान और ब्रह्मज्ञान का धारक होता है। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता के चौथे अध्याय के 34 श्लोक में अर्जुन से कहा है कि ज्ञानियों और तत्वदर्शियों से ज्ञान प्राप्त करो, वे ही तुम्हारे सच्चे गुरु हैं। "तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया। उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिन:॥4.34॥" |
19. ज्ञान योग के चार स्तंभ कौन से हैं? ॐ: ज्ञान योग के चार स्तंभ हैं: श्रवण (सुनना), मनन (चिंतन), निदिध्यासन (ध्यान) और अनुभव (आत्मानुभूति)। |
20. सच्चा सन्यासी कौन है? ॐ: भगवत गीता में बताए गए भगवान श्रीकृष्ण के वचनों के अनुसार सच्चा सन्यासी वह है जो मन, वचन और कर्म से सभी प्रकार की इच्छाओं और मोह का त्याग करता है और अपने आपको भगवान की सेवा में समर्पित कर देता है। |
21. ज्ञान योग के कितने प्रकार हैं? ॐ: ज्ञान योग मुख्यतः चार प्रकार का होता है जिसमें व्यक्ति आत्म-साक्षात्कार और भगवान की प्राप्ति के लिए ज्ञान का मार्ग अपनाता है। ज्ञान योग के प्रकार: श्रवण (सुनना), मनन (चिंतन) निदिध्यासन (ध्यान) और अनुभव (आत्मानुभूति)।
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22. भगवत गीता के अनुसार सबसे बड़ा योग कौन सा है? ॐ: भगवत गीता के अनुसार, भक्ति योग सबसे बड़ा योग है क्योंकि यह सीधे भगवान से संबंध स्थापित करता है और मोक्ष का मार्ग प्रदान करता है। |
23. ब्रह्मचारी और सन्यासी में क्या अंतर है? ॐ: श्रीकृष्ण के उपदेश अनुसार ब्रह्मचारी वह होता है जो ब्रह्मचर्य का पालन करता है और जीवन में संयम रखता है। सन्यासी वह है जिसने सभी प्रकार के सांसारिक मोह और बंधनों का त्याग कर दिया है। |
24. गीता के अनुसार संन्यास का अर्थ क्या है? ॐ: गीता में भगवान श्रीकृष्ण के कहे गए वचनों के अनुसार संन्यास का अर्थ है सभी प्रकार की इच्छाओं और फलों के त्याग के साथ कर्म करना, अर्थात कर्म का परित्याग नहीं, बल्कि फल की आसक्ति का त्याग करना। |
25. गीता के अनुसार सन्यासी योगी कौन है? ॐ: भगवान श्रीकृष्ण द्वारा गीता में कहे गए वचनो के अनुसार, वह व्यक्ति जो सभी इच्छाओं और संलग्नताओं का त्याग कर देता है और केवल परमात्मा में स्थित रहता है, वही सच्चा सन्यासी और योगी है। |
26. भगवद गीता का अध्याय 4 क्या समझाता है? ॐ: भगवद गीता का चौथा अध्याय 'ज्ञान कर्म संन्यास योग' को समझाता है, जिसमें श्रीकृष्ण अर्जुन को कर्म, ज्ञान और संन्यास का महत्व बताते हैं और समझाते हैं कि कैसे इन तीनों को एक साथ संतुलित किया जा सकता है। |
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27. क्या योगी और सन्यासी एक ही हैं? ॐ: नहीं, योगी वह होता है जो योग के माध्यम से आत्म-साक्षात्कार प्राप्त करने का प्रयास करता है, जबकि सन्यासी वह है जो सभी सांसारिक बंधनों का त्याग कर देता है। हालांकि, एक व्यक्ति दोनों भी हो सकता है। हालांकि गीता के अनुसार योग और संन्यास दोनों एक ही सिद्धांत पर आधारित हैं, क्योंकि दोनों ही आत्म-ज्ञान की ओर अग्रसर होते हैं और अपने सभी प्रकार के कर्मों को भगवान के प्रति समर्पित करते हैं। |
28. ज्ञान का पहला स्तंभ क्या है? ॐ: ज्ञान का पहला स्तंभ है 'श्रवण' यानी गुरु से ज्ञान की प्राप्ति करना और शास्त्रों का अध्ययन करना। यह प्राचीन समय से ही भारतीय संस्कृति में ज्ञान प्राप्ति का प्रमुख माध्यम रहा है, जहाँ वेदों और उपनिषदों को सुनकर ज्ञान की प्राप्ति की है। |
29. ज्ञान योग की उत्पत्ति कैसे हुई? ॐ: श्रीमद्भागवद गीता में वर्णित भगवान श्रीकृष्ण के वचनों के अनुसार ज्ञानयोग की उत्पत्ति सृष्टि के आरंभ में वेदों और उपनिषदों से हुई है। भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को बताया कि यह योग अत्यंत प्राचीन है और आरंभ में स्वयं उन्होंने इस ज्ञान को सूर्य देव को दिया था, उसके बाद यह ज्ञान विभिन्न ऋषियों और मुनियों को दिया गया। |
30. मोक्ष के देवता कौन हैं? ॐ: मोक्ष के देवता भगवान विष्णु हैं, जिन्हें श्रीकृष्ण के रूप में भी जाना जाता है। भगवत गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को मोक्ष प्राप्ति का मार्ग दिखाया और बताया है कि भगवान में भक्ति, सही ज्ञान और निष्काम कर्म के माध्यम से कोई भी मनुष्य मोक्ष को प्राप्त कर सकता है। मोक्ष का अर्थ है आत्मा का पुनर्जन्म के चक्र से सदा के लिए मुक्त प्राप्त करना और परमपिता परब्रह्म परमेश्वर में विलीन हो जाना। |
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