Shrimad Bhagwat Geeta: अध्याय 3 कर्म योग का रहस्य और उसका महत्व | Shrimad Bhagwat Geeta Karm Yog
जय श्री कृष्ण! मित्रों, आज हम भगवद गीता के तीसरे अध्याय का अध्ययन करने जा रहे हैं, जिसको 'कर्म योग' के नाम से जाना जाता है। भगवत गीता के तीसरे अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को उसके कर्म और धर्म के मर्म यानी महत्व को समझाया है। इस अध्याय में श्रीकृष्ण ने स्पष्ट कहा है कि जीवन में कर्म भूमिका सर्वाधिक महत्वपूर्ण होती है, जो मनुष्य को उसके अपने कर्तव्यों का पालन करवाते हुए मोक्ष की प्राप्ति ओर ले जाता है। कर्म योग का सिद्धांत भी यही सिखाता है कि किसी भी कार्य को निष्काम भाव से बिना फल की इच्छा के करना चाहिए, वास्तविक रूप से यही निष्काम भाव से किया गया कर्म ही 'सच्चा कर्म योग' है। इस अध्याय में श्रीकृष्ण ने कर्म के महत्त्व और उस कर्म को करने की सही विधि पर गहन प्रकाश डाला है, जिससे अर्जुन ही नहीं, बल्कि आज के युग के लोग भी प्रेरित हो सकते हैं। आइए फिर हम सभी भगवत गीता के तीसरे अध्याय 'कर्म योग' यानी Shrimad Bhagwat Geeta Karm Yog के ज्ञान की सागर में से एक कुछ बूंदें प्राप्त कर अपने जीवन की शुद्धिकरण कर अपने लिए एक निश्चित लक्ष्य को पूरा करने का संकल्प लें।
Shrimad Bhagwat Geeta Karm Yog | भगवत गीता कर्म योग
श्रीमद्भगवद्गीता के इस तीसरे अध्याय का मूल मंत्र है कर्मयोग। यह अध्याय हमें सिखाता है कि कर्म ही जीवन का आधार है और हमें अपने कर्म को निष्काम भाव से करना चाहिए। इस अध्याय की शिक्षाएँ हमें न केवल जीवन जीने की सही दिशा देती हैं, बल्कि आत्मिक उन्नति की ओर भी अग्रसर करती हैं। आइए फिर हम सब इस कर्म योग के बारे में और अधिक ज्ञान अर्जित कर अपने जीवन को सही दिशा प्रदान करने का प्रयास करें और अपने जीवन को सार्थक बनाएं।
Bhagwat Geeta Chapter 3 in Hindi | भगवत गीता अध्याय 3 कर्म हिंदी में
कर्म योग का मतलब है निष्काम कर्म, अर्थात् बिना फल की इच्छा के कार्य करना। गीता में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को बताते हैं कि इंसान को हमेशा अपने कर्म करते रहना चाहिए, चाहे वह फल की चिंता करे या न करे। कर्म योग हमें सिखाता है कि हमारा कर्तव्य ही हमारा धर्म है, और हमें इसे पूरी निष्ठा और समर्पण के साथ निभाना चाहिए। अर्जुन ने युद्ध के मैदान में अपने कर्तव्यों के प्रति संशय व्यक्त किया, तब श्रीकृष्ण ने उन्हें कर्म योग का उपदेश दिया। उन्होंने अर्जुन से कहा:
- कर्तव्य पालन: प्रत्येक व्यक्ति का यह कर्तव्य है कि वह अपने सामाजिक और पारिवारिक दायित्वों को पूरी निष्ठा से निभाए।
- निष्काम कर्म: बिना फल की इच्छा के काम करना ही सही कर्म है। जब हम अपने काम के परिणाम की चिंता किए बिना कार्य करते हैं, तो हम सच्चे अर्थों में कर्म योग का पालन कर रहे होते हैं।
- समर्पण भाव: भगवान के प्रति पूर्ण समर्पण और श्रद्धा के साथ किए गए सभी प्रकार के कर्म ही जीवन को सफल बनाते हैं।
What is the Karm Yog? | कर्म योग क्या है?
गीता के तीसरे अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को कर्मयोग की शिक्षा दी है। कर्मयोग का सरल अर्थ है 'कर्म का योग' या 'कर्म द्वारा मुक्ति' यानी कि कर्म करते हुए भी योग में स्थित रहना। इसमें भगवान कहते हैं कि हर व्यक्ति को अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए, बिना फल की चिंता किए। कर्म करते समय मन को शांत रखना और उसे भगवान के चरणों में अर्पित करना ही सच्चा कर्म योग है। इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने समझाया है कि निष्काम कर्म यानी बिना किसी स्वार्थ के किया गया कार्य ही हमें मोक्ष की ओर ले जाता है। इस अध्याय में श्रीकृष्ण ने जो उपदेश दिए हैं, वो सभी उपदेश कर्म योग के संदर्भ में दिए हैं। उन्होंने कहा है कि हर व्यक्ति को अपने कर्तव्यों का पालन निष्ठा और समर्पण के साथ वह भी बिना किसी फल की इच्छा किये बिना करना चाहिये। यही सही मायने में कर्मयोग का सिद्धांत है। कर्म योग ही जीवन में संतुलन बनाए रखने और मानसिक शांति प्राप्त करने का सबसे उत्तम मार्ग है।
5 Importance of Karma Yoga । कर्म योग के महत्व पर 5 अनमोल बातें
श्रीमद्भगवद्गीता एक पवित्र ग्रंथ है जो जीवन के विभिन्न पहलुओं पर गहन दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है। इसका तीसरा अध्याय, "कर्म योग," हमारे कर्मों और उनके महत्व को समझाने में अहम भूमिका निभाता है। आइए फिर हम और आप मिलकर जानें इस अध्याय की 5 प्रमुख बातें जो हमको नई राह और हमारे जीवन को नई दिशा दे सकती हैं।
1. कर्म का महत्व: सबसे पहला महत्व भगवत गीता का तीसरा अध्याय यह स्पष्ट करता है कि कर्म से बचा नहीं जा सकता। जीवन में हर व्यक्ति को कर्म करना ही पड़ता है, चाहे वह शारीरिक हो या मानसिक। यह अध्याय सिखाता है कि कर्म किए बिना जीवन संभव नहीं है और हमें अपने कर्तव्यों को निभाना चाहिए बिना फल की चिंता किए। |
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2. निष्काम कर्म का महत्व: भगवद्गीता के इस अध्याय में निष्काम कर्म की अवधारणा को महत्वपूर्ण बताया गया है। इसका अर्थ है कि हमें अपने कार्यों को बिना किसी स्वार्थ और फल की अपेक्षा के करना चाहिए। यह हमारे मन को शांति और संतोष की ओर ले जाता है, और हमें मानसिक तनाव से मुक्त करता है। |
3. समाज कल्याण का महत्व: तीसरा भगवत गीता का तीसरा अध्याय यह भी बताता है कि कर्म केवल व्यक्तिगत लाभ के लिए नहीं होना चाहिए, बल्कि समाज के कल्याण के लिए भी होना चाहिए। यह अध्याय सिखाता है कि हमें अपने कर्मों के माध्यम से समाज और मानवता की सेवा करनी चाहिए, जिससे हम एक संतुलित और खुशहाल समाज का निर्माण कर सकें। |
4. कर्म और धर्म पालन का महत्व: इस अध्याय में कर्म और धर्म के बीच के संबंध को स्पष्ट किया गया है। भगवद्गीता के अनुसार, सही कर्म वही है जो धर्म के अनुसार हो। धर्म का पालन करते हुए किया गया कर्म न केवल व्यक्ति को व्यक्तिगत लाभ देता है, बल्कि उसे आध्यात्मिक ऊंचाइयों तक भी ले जाता है। |
5 आत्मसंयमता का महत्व: कर्म योग का एक महत्वपूर्ण पहलू आत्मसंयम है। यह अध्याय सिखाता है कि हमें अपने इंद्रियों को नियंत्रित करना चाहिए और मन को संयमित रखना चाहिए। आत्मसंयम से व्यक्ति अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने में सक्षम होता है और जीवन में संतुलन बनाए रख सकता है। |
श्रीमद्भगवद्गीता का तीसरा अध्याय हमें कर्म के महत्व, निष्काम कर्म, समाज की सेवा, धर्म के अनुसार कर्म और आत्मसंयम के बारे में गहन शिक्षा प्रदान करता है। इन शिक्षाओं को अपनाकर हम अपने जीवन को सकारात्मक और उद्देश्यपूर्ण बना सकते हैं। कर्म योग की यह शिक्षा हमें न केवल एक बेहतर इंसान बनाती है, बल्कि हमें आध्यात्मिक मार्ग पर भी आगे बढ़ाती है। श्रीमद्भगवद्गीता का हर अध्याय हमें जीवन जीने की कला सिखाता है, और तीसरा अध्याय हमें कर्म योग की शिक्षा देकर हमारे जीवन को नया अर्थ और दिशा प्रदान करता है। अपने कर्मों को धर्म के अनुसार और निष्काम भाव से करने का महत्व हमें इसी अध्याय से सीखने को मिलता है। आइए फिर हम सब इस महान ग्रंथ श्रीमद्भगवद्गीता के तीसरे अध्याय की शिक्षाओं को अपने जीवन में उतारें और एक सकारात्मक बदलाव की ओर कदम बढ़ाएं।
Bhagwat Geeta Karm Yog Shlok 1-10 | भगवत गीता अध्याय 3 श्लोक १-१०
अर्जुन उवाच:- ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन । तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव ॥१॥ |
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भगवत गीता अध्याय 3 कर्म योग हिंदी संस्करण:- अर्जुन ने कहा - हे जनार्दन, हे केशव! यदि आप बुद्धि व ज्ञान के मार्ग को सकाम कर्म से श्रेष्ठ और कल्याणकारी समझते हैं, तो फिर आप मुझे इस घोर युद्ध में क्यों लगाना चाहते हैं और मुझे युद्ध करने के लिए क्यों कह रहे हैं? (प्रथम श्लोक) |
व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे । तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम ॥२॥ |
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भगवत गीता अध्याय 3 कर्म योग हिंदी संस्करण:- आपके अनेकार्थक उपदेशों से मेरी बुद्धि मोहित हो गई है अर्थात् यहां अर्जुन व्यामिश्रित भगवान श्रीकृष्ण के द्वारा बताये गये दो प्रकार के मार्ग ज्ञान का मार्ग एवं कर्म करने का मार्ग में उलझ गया है और वह सही निर्णय नहीं ले पा रहा है। इसलिए अर्जुन भगवान श्रीकृष्ण से पूछता है कि हे केशव! आप मुझे बताइए कि मेरे लिए अब कौन सा मार्ग अपनाना श्रेष्ठ एवं कल्याणकारी होगा- ज्ञान के मार्ग को अपनाना या फिर कर्म करने के मार्ग को अपनाना? क्योंकि आप तो मुझे ज्ञान दे रहे हैं कि ज्ञान का मार्ग सबसे उत्तम होता है लेकिन फिर आप मुझे कर्म योग को अपनाने को क्यों कह रहे हैं? ऐसे में ज्ञान के मार्ग तथा कर्म के मार्ग से मैं भ्रमित हो रहा हूं। अतः आप कृपा करके निश्चय पूर्वक बताएं कि अब मुझे क्या करना चाहिए? और मेरे लिए कर्म योग तथा ज्ञान योग में से कौन सा योग क्या अपनाना सबसे श्रेष्ठ एवं कल्याणकारी होगा? (द्वितीय श्लोक) |
श्रीभगवानुवाच:- लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ । ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् ॥३॥ |
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भगवत गीता अध्याय 3 कर्म योग हिंदी संस्करण:- श्रीभगवान कहते हैं - हे निष्पाप दोषरहित, अर्जुन! मैं तुम्हें पहले ही बता चुका हूं कि परमब्रह्म परमात्मा को दो प्रकार से प्राप्त किया जा सकता है, जहां पहला है सांख्य योग यानी कि ज्ञानयोग के मार्ग से तथा दूसरा है कर्मयोग यानी कि निष्काम भाव से कर्म करने से कोई भी पुरुष व व्यक्ति परमात्मा को प्राप्त कर जाता है। अर्जुन कोई व्यक्ति परमात्मा को अपने ज्ञान से प्राप्त कर सकता है; जैसे- परमपिता परमात्मा में आस्था रखते हुए, पवित्र मन से तप व यज्ञ करने से परब्रह्म परमात्मा को कर सकता है और कोई व्यक्ति परमात्मा को अपने निष्काम कर्मों से निवृत्त होकर परमेश्वर को प्राप्त कर सकता है। (तृतीय श्लोक) |
न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरषोऽश्नुते । न च सन्न्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति ॥४॥ |
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भगवत गीता अध्याय 3 कर्म योग हिंदी संस्करण:- मनुष्य जीवन में कोई भी व्यक्ति न तो कर्म से विमुख होकर कोई कर्मफल से छुटकारा पा सकता है और न ही केवल संयास से सिद्धि को प्राप्त कर सकता है। भगवान श्रीकृष्ण के द्वारा ऐसा कहने का तात्पर्य है कि कोई भी व्यक्ति अगर अपने कर्तव्य व कर्म को न करना चाहें फिर भी इस कर्म बन्धन से मुक्त नहीं हो सकता। क्योंकि अगर कोई व्यक्ति कुछ न भी करे तो भी वह कर्म ही कर रहा होता है, वह कर्म है कुछ न करने का कर्म। उदाहरण के तौर पर मनुष्य व अन्य जीव हर समय सांस लेते रहता है और छोड़ता है, जिससे वह जीवित रहता है। जिस समय वह सांस लेना और सांस छोड़ना बंद कर देता है, तब उसकी मृत्यु निश्चित हो जाती है। यहां सांसों को लेने और छोड़ने की प्रक्रिया भी एक कर्म ही तो है। (चतुर्थ श्लोक) |
न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् । कार्यते ह्यवश: कर्म सर्व: प्रकृतिजैर्गुणै: ॥५॥ |
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भगवत गीता अध्याय 3 कर्म योग हिंदी संस्करण:- यहां प्रत्येक व्यक्ति को प्रकृति से अर्जित गुणों के अनुसार विवश व प्रकृति के अधीन होकर अर्थात् प्रकृति के गुणों से युक्त कर्म तो करना ही पड़ता है, अतः कोई भी व्यक्ति क्षणिक भर के लिए भी कर्म किये बिना बिल्कुल भी नहीं रह सकता। (पंचम श्लोक) |
कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन् । इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचार: स उच्यते ॥६॥ |
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भगवत गीता अध्याय 3 कर्म योग हिंदी संस्करण:- जो कोई कर्मेन्द्रियों यानी अपनी इच्छा, क्रोध, लाभ, वासना एवं घृणा आदि को वश में रखने का दिखावा तो करता है, लेकिन फिर भी उसका मन उन्हीं इंद्रियों के विषय में चिंतन करता रहता है, वह निश्चित रूप से खुद को ही धोखा देता है और वैसा व्यक्ति मित्याचारी, झूठा व ढोंगी कहलाता है। यहां भगवान श्रीकृष्ण के ऐसा कहने का यह तात्पर्य है कि अगर कोई व्यक्ति केवल दिखावे या ढोंग के लिए ये बात कहता है कि उसने सारे मोह-माया का त्याग कर दिया है और फिर भी वो इस सांसारिक भोगों का आनंद उठाता है, तो ऐसा व्यक्ति स्वयं को ही धोखा देता है। अगर कोई व्यक्ति ये कहता है कि आज उसने व्रत रखा है और इसलिए वो उपवास पर है, लेकिन व्रत के लिए उपवास रखने के बावजूद भी अगर वो खाने-पीने, स्वदिष्ट भोजन के विषय में ही बार-बार सोचता रहता है, तो भला उसके उपवास रखने का मतलब क्या है? (षष्ठम श्लोक) |
यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन । कर्मेन्द्रियै: कर्मयोगमसक्त: स विशिष्यते ॥७॥ |
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भगवत गीता अध्याय 3 कर्म योग हिंदी संस्करण:- लेकिन दूसरी ओर यदि कोई निष्ठावान होकर पूरे पवित्र मन से व्यक्ति अपने मन के द्वारा कर्मेन्द्रियों के विषयों जैसे लालच, क्रोध एवं वासना आदि को अपने वश में करने का प्रयास करता रहता है और बिना किसी आसक्ति व मोह-माया के जाल यानी लालच, क्रोध व वासना में पढ़े बिना कर्मयोग के मार्ग को अपनाता है और निष्काम भाव से कर्म करता है, ऐसा व्यक्ति ही सर्वश्रेष्ठ होता है। (सप्तम श्लोक) |
नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मण । शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मण: ॥८॥ |
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भगवत गीता अध्याय 3 कर्म योग हिंदी संस्करण:- हे अर्जुन! इसलिए तुम अपने नियत कर्म को ही अपना कर्तव्य और परमधर्म समझो तथा अपने क्षत्रिय धर्म का पालन करो, क्योंकि अर्जुन कुछ भी कर्म न करने की बदले में कर्म करना श्रेष्ठ होता है। कर्म करने के बिना तो तुम्हारा शरीर का निर्वाह भी मुमकिन नहीं हो सकता। यहां भगवान कहना चाहते हैं कि मानव जीवन में मनुष्य कोई भी कर्म किये बिना जीवित ही नहीं रह पायेगा। कहने का तात्पर्य यह है कि अगर मनुष्य सांस लेने का कर्म भी त्याग दे तो उसकी मृत्यु हो जाती है। इस संसार में सांस लेना और छोड़ना भी तो एक कर्म ही होता है। (अष्टम श्लोक) |
यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धन: । तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसङ्ग समाचर ॥९॥ |
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भगवत गीता अध्याय 3 कर्म योग हिंदी संस्करण:- मनुष्य के लिए परमात्मा को पाने एवं इस भौतिक जगत में मोह-माया के बन्धन से मुक्त होने के लिए एकमात्र उपाय यही है कि वह अपना कोई भी कर्म यज्ञ के रूप में करे यानी अपने सभी कर्मों को परमात्मा को अर्पित करते हुए निष्काम कर्म करे। अन्यथा ऐसा न करने पर वह इस भौतिक जगत के बन्धनों में ही फंसकर रह जाता है। इसलिए कुन्तीपुत्र, अर्जुन! तुम अपना नियत कर्म करो, इससे प्रकृति व नियति को प्रसन्नता होगी। अगर तुम हमेशा अपने नियत कर्म करते हो, तो मोह-माया के बन्धन से सदा ही मुक्त रहोगे। (नवम श्लोक) |
सहयज्ञा: प्रज्ञा: सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापति: । अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक् ॥१०॥ |
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भगवत गीता अध्याय 3 कर्म योग हिंदी संस्करण:- सृष्टि के आरंभ में सभी प्राणियों व जीवों के स्वामी प्रजापति यानी ब्रह्मा ने यज्ञ करने का विधान बनाया। ब्रह्मा ने बताया उसके द्वारा रचित इस यज्ञ से मनुष्य देवताओं व परमात्मा तक को भी प्रसन्न करने में सफल हो सकता है। ब्रह्मा ने यह भी बताया कि इस यज्ञ से तुम सुखी रहोगे क्योंकि इस यज्ञ को करने से तुम देवताओं तथा परमात्मा को खुश करने में सफल हो जाओगे और जब वे खुश होंगे तो तुम्हें भी सुखी से रहने तथा मुक्ति प्राप्त करने के लिए तुम्हें वांछित व कल्याणकारी फल देंगे। (दशम श्लोक) |
Bhagwat Geeta Karm Yog Shlok 11-20 | भगवत गीता अध्याय 3 श्लोक ११-२०
देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु व: | परस्परं भावयन्त: श्रेय: परमवाप्स्यथ ॥११॥ |
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भगवत गीता अध्याय 3 कर्म योग हिंदी संस्करण:- यज्ञ करने से देवतागण प्रसन्न होते हैं। यज्ञों के द्वारा प्रसन्न देवता तुम्हें भी प्रसन्न व खुश करेंगे। इस प्रकार यज्ञों को एक ऐसा माध्यम कहा जा सकता, जिसके द्वारा मनुष्यों एवं देवताओं के मध्य एक-दूसरे से परस्पर सम्बन्ध बना रहता है। इसलिए जब कोई मनुष्य यज्ञ करता है और यज्ञ से देवताओं को प्रसन्न करने में सफल होता है, तब देवता भी उसकी मनोकामना पूरी करते हैं अर्थात देवता उस व्यक्ति के जीवन में खुशहाली लाते हैं। (11वें श्लोक) |
इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविता: । तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते स्तेन एव स: ॥१२॥ |
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भगवत गीता अध्याय 3 कर्म योग हिंदी संस्करण:- जीवन की विभिन्न आवश्यकताओं को पूरा करने वाले विभिन्न देवता यज्ञ के सम्पन्न होने पर तुम्हारे यज्ञ से खुश होकर तुम्हारी सभी आवश्यकताओं को पूरा करेंगे। लेकिन जो व्यक्ति इन उपहारों व यज्ञ करने के सौभाग्य को त्याग कर देवताओं को अर्पित किये बिना भोगता है, वह व्यक्ति निश्चित रूप से चोर, दुराचारी व लालची मनुष्य कहलाता है। (12वें श्लोक) |
यज्ञशिष्टाशिन: सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषै: । भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात् ॥१३॥ |
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भगवत गीता अध्याय 3 कर्म योग हिंदी संस्करण:- भगवान में श्रद्धा रखने वाले भक्त अपने सभी प्रकार के पापों से मुक्त हो जाते हैं, क्योंकि वे यज्ञ में अर्पित किये भोजन व प्रसाद को ही खाते हैं। अन्य सारे लोग, जो केवल अपने इन्द्रियसुख व मन की खुशी एवं जीव स्वाद के लिए ही भोजन बनाकर खाते हैं, वे निश्चित रूप से पाप को ही खाते हैं। (13वें श्लोक) |
अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भव: । यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञ: कर्मसमुद्भव: ॥१४॥ |
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भगवत गीता अध्याय 3 कर्म योग हिंदी संस्करण:- सारे प्राणी व जीव अन्न यानी भोजन, खाद्य पदार्थ पर ही आश्रित हैं, जो वर्षा से उत्पन्न होता है। यह वर्षा यज्ञ सम्पन्न करने से होती है और यज्ञ मनुष्यों के नियत कर्मों से उत्पन्न होता है। (14वें श्लोक) |
कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम् । तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम् ॥१५॥ |
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भगवत गीता अध्याय 3 कर्म योग हिंदी संस्करण:- वेदों में करने योग नियमित कर्मों का विधान है। मनुष्य को कैसे कर्म करने चाहिए और कैसे कर्मों को करने से बचना चाहिए ये सभी कर्म वेदों में वर्णित है। वेदों में निहित ज्ञान यानी सांख्य एवं कर्म योग का ज्ञान साक्षात परब्रह्म परमपिता परमात्मा श्री भगवान से प्रकट हुए हैं। अतः यही सर्वव्यापी परब्रह्म यज्ञकर्मों में सदा स्थित रहता है। अर्थात् यज्ञ जैसे लोककल्याण कर्म परमात्मा को सर्वाधिक प्रिय होता है, जिससे परमपिता परमात्मा भी खुश होकर लोगों का कल्याण कार्य सफल एवं संपन्न करते हैं। (15वें श्लोक) |
एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह य: । अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति ॥१६॥ |
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भगवत गीता अध्याय 3 कर्म योग हिंदी संस्करण:- हे प्रिय अर्जुन! जो मनुष्य अपने मानव जीवन में इस प्रकार वेदों द्वारा स्थापित यज्ञ-चक्र, यज्ञ अनुष्ठान जैसे कर्म का पालन नहीं करता वह तो निश्चय ही पापमय जीवन व्यतीत करता है। ऐसे व्यक्ति को पापी कहना चाहिए क्योंकि वह केवल अपने इन्द्रियों की तुष्टि के लिए व्यर्थ में ही जीवित रहता है। अर्थात् ऐसा व्यक्ति केवल अपने सुख, लाभ और वासना आदि जैसे इच्छाओं की पूर्ति में ही लगा रहता है, उसे अन्य जीवों व मनुष्यों के कल्याण में कोई रुचि नहीं होती वो सिर्फ खुद के लिए ही जीता है। (16वें श्लोक) |
यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानव: । आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते ॥१७॥ |
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भगवत गीता अध्याय 3 कर्म योग हिंदी संस्करण:- लेकिन जो व्यक्ति आत्मा में ही आनंद लेता है तथा जिसका जीवन आत्म-साक्षात्कार युक्त है अर्थात् जो आत्म ज्ञान की प्राप्ति कर लेता है व जिसने आत्मा को समझ लिया है, और जो अपने में ही पूर्णतया संतुष्ट रहता है। ऐसे व्यक्ति के लिए कुछ कर्तव्य नहीं होता। भगवान श्रीकृष्ण यहां कहना चाहते हैं कि जिस भी व्यक्ति ने अपनी आत्मा को जान लिया कि वह भी परमात्मा का ही अंश है, तो वह साक्षात परमात्मा को प्राप्त कर लिया होता है उसे भला और क्या चाहिए? उसके लिए कोई भी कर्म शेष नहीं रहता, क्योंकि आत्मा परमात्मा का ही अंश होता है और जो व्यक्ति अपनी आत्मा को समझ लेता है, तो वह परमात्मा को भी जान लेता है तथा परमात्मा को प्राप्त भी कर लेता है और इस संपूर्ण ब्रह्माण्ड में ऐसी कोई भी वस्तु उसे मोहित नहीं कर सकता क्योंकि जब वो परमात्मा को ही प्राप्त कर लेता है, जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में परम पूज्य, परम सत्य, परम शान्ति एवं सर्वत्र तथा सर्वश्रेष्ठ है, तो ऐसे में भला उस परमपिता परमात्मा के अलावा उस व्यक्ति के लिए किसी भी वस्तु, धन-संपत्ति या कोई अन्य व्यक्ति व जीव को पाने की इच्छा व चाह ही क्यों होगी, जब वो व्यक्ति साक्षात परब्रह्म परमपिता परमेश्वर को ही प्राप्त कर चुका होता है। (17वें श्लोक) |
नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन । न चास्य सर्वभूतेषू कश्चिदर्थव्यपाश्राय: ॥१८॥ |
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भगवत गीता अध्याय 3 कर्म योग हिंदी संस्करण:- बुद्धिमान व स्वरूपसिद्ध, सिद्धियुक्त एवं योगी पुरुष व्यक्ति के लिए न तो अपने नियत कर्मों को करने की आवश्यकता रह जाती है, और न ही ऐसा कर्म न करने का कोई कारण ही रहता है। उसे किसी अन्य जीव पर निर्भर रहने की भी कोई आवश्यकता नहीं रह जाती। फिर भी वो सिद्ध पुरुष अपना नियत कर्म करता है। भगवान श्रीकृष्ण यहां कहना चाहते हैं कि मनुष्य को सदैव अपने नियत कर्म करने चाहिए। अगर योगी पुरुष जिसने परमात्मा को प्राप्त कर लिया हो और इस सांसारिक भोगों को त्याग कर संयासी जीवन व्यतीत कर रहा है, तो सभी लोगों उस योगी पुरुष व्यक्ति की भांति ही कर्म न करके केवल अपने नियत कर्म ही करना चाहिए। अगर सभी लोग संयासी बन जायेंगे तो भला ऐसे में सृष्टि आगे कैसे बढ़ेगी। (18वें श्लोक) |
तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर । असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुष: ॥१९॥ |
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भगवत गीता अध्याय 3 कर्म योग हिंदी संस्करण:- इसलिए कर्मफल में आसक्त व मोहित हुए बिना यानी अपने कर्म फल की चिंता किए बिना मनुष्य को सदैव अपने नियत कर्म को अपना कर्तव्य समझ कर निरंतर करते रहना चाहिए क्योंकि कर्मफल की चिंता किए बिना कर्म करने से उसे परब्रह्म व परमात्मा की प्राप्ति होती है। (19वें श्लोक) |
कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादय: । लोकसङ्ग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि ॥२०॥ |
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भगवत गीता अध्याय 3 कर्म योग हिंदी संस्करण:- जनक अर्थात् भगवान श्री राम की अर्धांगिनी सीता माता के पिता जैसे राजाओं ने भी केवल नियत कर्मों को करते हुए ही सिद्धि व परम ज्ञान को प्राप्त की। अतः हे अर्जुन! सामान्य लोगों को शिक्षित करने की दृष्टि से तुम्हें भी अपना कर्म करना चाहिए। भगवान श्रीकृष्ण यहां अर्जुन को समझाने का प्रयास कर रहे हैं कि जब भगवान श्री राम के ससुर व सीता माता के पिता महाराज जनक जैसे राजा व ज्ञानी पुरुष अपने लोगों यानी अपनी प्रजा के कल्याण हेतु कार्य कर सकते हैं, तो फिर तुम भी तो एक क्षत्रिय और एक महान वीर योद्धा हो। इसलिए तुम्हारा यही कर्तव्य बनता है कि तुम भी अपना नियत कर्म करते हुए लोक कल्याण के लिए युद्ध करो। (20वें श्लोक) |
Bhagwat Geeta Karm Yog Shlok 21-30 | भगवत गीता अध्याय 3 श्लोक ११-२०
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जन: । स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ॥२१॥ |
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भगवत गीता अध्याय 3 कर्म योग हिंदी संस्करण:- महापुरुष जो-जो आचरण करता है, सामान्य व्यक्ति भी उसी का अनुसरण हुए वैसा ही करते हैं। वह अपने अनुसरणीय कार्यों से जो आदर्श प्रस्तुत करता है, सम्पूर्ण विश्व उसका अनुसरण करता है। यहां पर आम बोलचाल की भाषा में भगवान श्रीकृष्ण के बोलने का अर्थ आप इस प्रकार से समझ सकते हैं कि जो कोई भी महान व्यक्ति अपने-अपने स्थानों व कार्य क्षेत्र में निपुण है एवं बड़ी सफलता को प्राप्त हुआ होता है; जैसे:- दुनिया का सबसे बड़ा व्यक्ति, महान खिलाड़ी, महा नायक, महान प्रतिभाशाली इत्यादि-इत्यादि। अन्य दूसरे लोग भी ऐसे व्यक्ति को अपना आदर्श मानते हैं और उसके लक्ष्य कदम पर चलते हैं अगर वह व्यक्ति अच्छे व बुरे कर्म करता है, तो उसको अपना आदर्श मानने वाले भी उसी की तरह अच्छे व बुरे कर्म आवश्य करेंगे। इसलिए उस महान व्यक्ति का कर्तव्य बन जाता है कि वह अपना कोई भी कर्म लोगों के कल्याणकारी हेतु अच्छे कर्म एवं सत्कर्म करे। इससे उनको अनुसरण करने वाले तथा उनको अपना आदर्श मानने वाले भी लोककल्याण हेतु अच्छे तथा सत्कर्म करेंगे। (21वें श्लोक) |
न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किञ्चन । नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि ॥२२॥ |
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भगवत गीता अध्याय 3 कर्म योग हिंदी संस्करण:- हे पार्थ, हे अर्जुन! तीनों लोकों में मेरे लिए ऐसा कोई कर्म नियत नहीं है जिसको मैं नहीं कर सकता, न ही मुझे किसी वस्तु का अभाव व कमी है और न ही आवश्यकता ही है। फिर भी मैं अपने नियतकर्म करने में सदैव तत्पर रहता हूं। यहां पर भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं कि इस समस्त संसार में ऐसा कोई काम नहीं है जिसको भगवान श्रीकृष्ण नहीं कर सकते और न ही उनको किसी भी चीज़ की कमी है। क्योंकि उन्होंने ही यह समस्त ब्रह्माण्ड व दुनिया बनाई है, तो भला उन्हें ही किसी वस्तु की आवश्यकता क्यों होगी। भगवान को कुछ करने की कोई आवश्यकता ही नहीं होती लेकिन फिर भी वो अपने कर्म अपना कर्तव्य समझ कर अपना कर्म करते हैं। (22वें श्लोक) |
यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रित: । मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्या: पार्थ सर्वश: ॥२३॥ |
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भगवत गीता अध्याय 3 कर्म योग हिंदी संस्करण:- भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि यदि मैं नियत कर्मों को सावधानी पूर्वक न करूं तो हे पार्थ! यह निश्चित है कि सारे मनुष्य भी मेरे पथ का ही अनुगमन करेंगे। अर्थात् सभी मनुष्य भी मेरा ही अनुसरण करते हुए कोई कर्म नहीं करेंगे । (23वें श्लोक) |
उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम् । सङ्करस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमा: प्रजा: ॥२४॥ |
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भगवत गीता अध्याय 3 कर्म योग हिंदी संस्करण:- यदि मैं ही नियतकर्म नहीं करूंगा, तो ये सारे लोग नष्ट-भ्रष्ट हो जायेंगे। तब मैं अवांछित जनसमुदाय (वर्णसंकर अर्थात् धर्म-कर्म को न मानने वाले तथा कर्म न करने वाले लोगों) को उत्पन्न करने का कारण बनूंगा और इस तरह से मैं ही संपूर्ण प्राणियों की शान्ति का विनाशक बनूंगा। (24वें श्लोक) |
सक्ता: कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत । कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसङ्ग्रहम् ॥२५॥ |
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भगवत गीता अध्याय 3 कर्म योग हिंदी संस्करण:- जिस प्रकार अज्ञानी-जन या मूर्ख लोग फल की आसक्ति से कार्य करते हैं, उसी तरह विद्वान लोगों को चाहिए कि वे अन्य लोगों को भी उचित पथ पर ले जाने के लिए अनासक्त रहकर कार्य करें। यहां पर भगवान श्रीकृष्ण कह रहे हैं कि अज्ञानी-जन व मूर्ख लोग कोई भी कार्य को फल की प्राप्ति के लिए ही करते हैं और अपने इच्छाओं की पूर्ति के लिए ही कर्म करते हैं, उसी प्रकार बुद्धिमान व विद्वान लोगों का कर्तव्य बनता है कि वे इस सांसारिक मोह-माया में न फंसकर कोई भी कार्य करें ताकि वे अन्य लोगों को सही राह पर ले जायें। (25वें श्लोक) |
न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङ्गिनाम् । जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्त: समाचरन् ॥२६॥ |
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भगवत गीता अध्याय 3 कर्म योग हिंदी संस्करण:- विद्वान व योगी पुरुष को चाहिए कि वह सकाम कर्मों (फल की प्राप्ति के उद्देश्य से किया गये कोई भी कामों) में मोहित अज्ञानी पुरूषों को कर्म करने से रोके नहीं ताकि उसका मन विचलित न हो। बल्कि भक्तिभाव से कर्म करते हुए वह भी उन्हें सभी प्रकार के कार्यों में लगाये। जिससे उन अज्ञानी पुरूषों को भी भक्ति मार्ग व परमात्मा को प्राप्त करने के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित कर सके। (26वें श्लोक) |
प्रकृते: क्रियमाणानि गुणै: कर्माणि सर्वश: । अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ॥२७॥ |
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भगवत गीता अध्याय 3 कर्म योग हिंदी संस्करण:- जीवात्मा व मनुष्य अहंकार के प्रभाव से मोहग्रसत होकर स्वयं को ही समस्त कर्मों का कर्ता मान बैठता है, वह यही सोचता है कि उसने ही कार्य किया है, वह ये नहीं समझ पाता कि वो कर्म उससे कौन करवाता है। जबकि वास्तव में वे सभी कर्म प्रकृति के तीनों गुणों द्वारा सम्पन्न किये जाते हैं। (27वें श्लोक) |
तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयो: । गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते ॥२८॥ |
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भगवत गीता अध्याय 3 कर्म योग हिंदी संस्करण:- हे महाबाहु, अर्जुन! जो मनुष्य भक्ति भावमय कर्म तथा सकाम कर्म के भेद यानी अंतर को भली-भांति जानते हुए परम सत्य को जानता है, वह कभी भी अपने आपको इन्द्रियों सुखों तथा इंद्रियतृप्ति की वस्तुओं में नहीं लगाता। (28वें श्लोक) |
प्रकृतेर्गुणसम्मूढाः सज्जन्ते गुणकर्मसु । तानकृत्स्न्नविदो मन्दान्कृत्स्न्नविन्न विचालयेत् ॥२९॥ |
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भगवत गीता अध्याय 3 कर्म योग हिंदी संस्करण:- इस संसार की मोह-माया के गुणों से मोहग्रसत होने से अज्ञानी पुरुष पूरी तरह भौतिक कार्यों में संलग्न रहकर उनमें ही आसक्त व मोहित हो जाते हैं। यद्यपि उनके ये सभी कार्य वे अपने ज्ञान के अभाव के कारण करते हैं, इसलिए ज्ञानी पुरुष को चाहिए कि वो उन्हें व उन अज्ञानी व्यक्तियों को विचलित न करें। (29वें श्लोक) |
मयि सर्वाणि कर्माणि सन्न्यस्याध्यात्मचेतसा । निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वर: ॥३०॥ |
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भगवत गीता अध्याय 3 कर्म योग हिंदी संस्करण:- इसलिए हे अर्जुन! तुम अपने सारे कार्यों को मुझमें ही पूर्णतः समर्पित करके मेरे पूर्ण ज्ञान से यूक्त होकर, लाभ की अभिलाषा से रहित तथा किसी प्रकार के अधिकार का दावा किये बिना और अपने आलस्य को दूर करके यह युद्ध करो। (30वें श्लोक) |
Bhagwat Geeta Karm Yog Shlok Gyan 31-40 | भगवत गीता अध्याय 3 श्लोक ३१-४०
ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवा: । श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽपि कर्मभि: ॥३१॥ |
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भगवत गीता अध्याय 3 कर्म योग हिंदी संस्करण:- जो लोग मुझमें ही अपनी आस्था रखते हैं, मेरे आदेशों के अनुसार अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए कर्म करते हैं तथा किसी और से ईर्ष्यारहित होकर इस उपदेश का श्रद्धापूर्वक पालन करते हैं। वे सभी प्रकार के सकाम कर्मों के बन्धन से मुक्त हो जाते हैं। (31वें श्लोक) |
ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम् । सर्वज्ञानविमूढांस्तान्विद्धि नष्टानचेतस ॥३२॥ |
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भगवत गीता अध्याय 3 हिंदी संस्करण:- लेकिन जो लोग ईर्ष्यावश इन उपदेशों की उपेक्षा करते हैं और भगवान के उपदेशों की निंदा तथा बुराई करते हैं और इनका पालन नहीं करते उन्हें उन्हें समस्त ज्ञान से रहित, दिग्भ्रमित तथा सिद्धि के प्रयासों में नष्ट-भ्रष्ट समझना चाहिए। (32वें श्लोक) |
सदृशं चेष्टते स्वस्या: प्रकृतेर्ज्ञानवानपि । प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रह: किं करिष्यति ॥३३॥ |
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भगवत गीता अध्याय 3 कर्म योग हिंदी संस्करण:- ज्ञानी पुरुष व योगी पुरुष भी अपनी प्रकृति के अनुसार ही कार्य करते हैं, क्योंकि सभी प्राणी प्रकृति के इन तीनों गुणों सत, राजस तथा तामस गुण कर्म से ही प्राप्त अपनी प्रकृति का अनुसरण करते हैं। भला दमन करने अथवा किसी को डराने-धमकाने या नष्ट करने से क्या हो सकता है? इसलिए ज्ञानी व योगी पुरुष कभी घमंड या गर्व नहीं करता कि उसने ही कर्म किया है। (33वें श्लोक) |
इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ । तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ ॥३४॥ |
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भगवत गीता अध्याय 3 कर्म योग हिंदी संस्करण:- हर एक इंद्रिय जैसे आंख, कान, मुंह, नाक एवं त्वचा तथा उसके विषय से सम्बन्धित राग-द्वेष (प्रेम भाव एवं घृणा भाव) को व्यवस्थित करने के नियम होते हैं। मनुष्य को ऐसे राग तथा द्वेष के वश में नहीं होना चाहिए क्योंकि यही राग-द्वेष आत्म-साक्षात्कार अर्थात् आत्मज्ञान के मार्ग में अवरोधक व बाधा बनते हैं। (34वें श्लोक) |
श्रेयान्स्वधर्मो विगुण: परधर्मात्स्वनुष्ठितात् । स्वधर्मे निधनं श्रेय: परधर्मो भयावह: ॥३५॥ |
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भगवत गीता अध्याय 3 कर्म योग हिंदी संस्करण:- अपने नियत कर्मों व प्रकृति द्वारा प्रदत्त कर्मों को दोषपूर्ण ढंग से (अर्थात् अपने नियत कर्म को अज्ञानता या बुद्धिहीनता के कारण ग़लत तरीके से) करना भी अन्य दूसरे कर्मों को करने की तुलना में भली-भांति श्रेयस्कर, सबसे अच्छा व सर्वश्रेष्ठ तथा कल्याणकारी होता है। अपने स्वधर्म नियत कर्मों को करते मृत्यु को प्राप्त होना भी पराये व दूसरे अन्य कर्मों में निवृत्त होने की अपेक्षा श्रेष्ठतर है, क्योंकि किसी अन्य के मार्ग (अन्य अर्थात् दूसरे लोगों का काम यानी अन्य लोगों के कर्म) का अनुसरण करना अपने लिए भयावह साबित हो सकता है। यहां श्रीकृष्ण कह रहे हैं कि किसी भी व्यक्ति के लिए उसका नियत कर्म ही उसके लिए सर्वश्रेष्ठ होता है, अन्य किसी और के कर्म को करने की अपेक्षा। भले ही उसका धर्म निम्न व छोटा भी क्यों न हो फिर भी उसे अपने ही कर्म को करना चाहिए क्योंकि किसी अन्य दूसरे लोगों का कर्म अपने लिए नवीनतम होता, जो कि उस व्यक्ति के लिए खतरनाक भी साबित हो सकता है। (35वें श्लोक) |
अर्जुन उवाच :- अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुष: । अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजित:॥३६॥ |
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भगवत गीता अध्याय 3 कर्म योग हिंदी संस्करण:- अर्जुन, श्रीकृष्ण से पूछते हैं - हे वृष्णिवंशी, हे श्रीकृष्ण! जब मनुष्य पाप-पुण्य के सभी कर्मों को भली-भति जानता है, तो फिर भी वो न चाहते हुए भी पापकर्मों को करने के लिए प्रेरित एवं विवश क्यों होता है? ऐसा प्रतीत होता है कि मानो उसको बलपूर्वक ही पापकर्मों को करने में लगाया जा रहा हो। (36वें श्लोक) |
श्रीभगवानुवाच :- काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भव: । महाशनो महापाप्मा विद्ध्यनमिह वैरिणम् ॥३७॥ |
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भगवत गीता अध्याय 3 कर्म योग हिंदी संसकरण:- भगवान श्री कृष्ण कहते हैं - हे अर्जुन! इसका मूल कारण रजोगुण के सम्पर्क से उत्पन्न काम है, जो बाद में क्रोध का रूप धारण करता है जो (वही क्रोध) इस ब्रह्माण्ड व समस्त संसार का सबसे बड़ा एवं अतिबलशाली शत्रु है। (37वें श्लोक) |
धूमेनाव्रियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च । यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम् ॥३८॥ |
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भगवत गीता अध्याय 3 कर्म योग हिंदी संस्करण:- जिस प्रकार धुएं से आग, धूल से दर्पण तथा गर्भाशय से भ्रूण (नवजात शिशु जब मां के गर्भ में रहता है, तब वह शिशु भ्रूण कहलाता है) ढका हुआ रहता है, उसी प्रकार जीवात्मा यानी प्राणधारी मनुष्य शरीर भी इस काम (भोग-विलास की वस्तुओं जैसे - धन-दौलत, वैभव, मान-प्रतिष्ठा, वासना आदि) की विभिन्न मात्राओं से ढका रहता है। (38वें श्लोक) |
आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा । कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च ॥३९॥ |
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भगवत गीता अध्याय 3 कर्म योग हिंदी संस्करण:- इस प्रकार ज्ञानी व योगी पुरुष (ज्ञानमय जीवात्मा) की शुद्ध चेतना भी उसके काम रूपी नित्य शत्रुओं (काम, क्रोध और वासना) से ढकी रहती है, जो कभी भी तुष्ट नहीं होता और अग्नि के समान जलता रहता है। यहां भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन के माध्यम से सभी जीवों के लिए ज्ञान दे रहे हैं! श्री कृष्ण कहते हैं कि ये ऐसी आग है जो कभी नहीं बुझती, इस आग का मतलब है काम, क्रोध एवं वासना और इसी से मनुष्य का ज्ञान भी ढका हुआ रहता है। इन भोगों से कभी कोई तृप्त नहीं हो पाया है। पैसा अगर कमाया है तो और अधिक पैसा कमाना है, खाना अगर खाया है तो और खाना है। इस तरह भोगों का कोई अंत और कोई सीमा नहीं होती, बल्कि ये भोग ही है जो मनुष्य का ही अंत करके मानती है। जैसे अगर आग को ईंधन मिलती रहे तो वो बुझती ही नहीं ठीक उसी प्रकार जब मनुष्य भी अपने भोग-विलास की इच्छाओं को बढ़ाता है तो वह भी अपने लिए जलती हुई अग्नि में घी डालने का काम करता है। काम व वासना, क्रोध, लोभ और मद को नियंत्रण में रखना ही इस आग को बुझाना है। (39वें श्लोक) |
इन्द्रियाणी मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते । एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम् ॥४०॥ |
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भगवत गीता अध्याय 3 कर्म योग हिंदी संस्करण:- इन्द्रियां मनुष्य के मन-मस्तिष्क तथा बुद्धि पर निवास करती हैं, वही पर इनका निवासस्थान रहता है। इन्हीं इंद्रियों के द्वारा यह मन कार्य करता है और जीवात्मा यानी मनुष्य के वास्तविक ज्ञान को पूरी तरह ढक कर उसे मोहित कर लेता है। (40वें श्लोक) |
Bhagwat Geeta Karm Yog Shlok 41-43 | भगवत गीता अध्याय 3 श्लोक ४१-४३
तस्मात्तवमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ । पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम् ॥४१॥ |
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भगवत गीता अध्याय 3 कर्म योग हिंदी संस्करण:- अतः हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन! प्रारंभिक समय में ही इन इन्द्रियों को वश में करके पाप के इन महान प्रतीकों काम, लोभ और क्रोध का नाश करो और ज्ञान तथा आत्म-साक्षात्कार व आत्मज्ञान के मार्ग पर अवरोध बनने वाले इस विनाशकर्ता शत्रु (काम, क्रोध और लालच) का वध करो। (41वें श्लोक) |
इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्य: परं मन: । मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धे: परतस्तु स: ॥४२॥ |
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भगवत गीता अध्याय 3 कर्म योग हिंदी संस्करण:- कर्मेन्द्रियां जड़ पदार्थ की अपेक्षा श्रेष्ठ हैं, इंद्रियों से बढ़कर है मन, मन से बढ़कर है बुद्धि और बुद्धि से भी बढ़कर होता जो होता है वह मनुष्य की आत्मा जो कि परमात्मा का ही अंश होता है। इसलिए अपनी आत्मा से बुद्धि को और बुद्धि से अपने इंद्रियों को वश में रखना चाहिए। (42वें श्लोक) |
एवं बुद्धे: परं बुद्ध्वा संस्तभ्यित्मिनमात्मना । जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम् ॥४३॥ |
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भगवत गीता अध्याय 3 कर्म योग हिंदी संस्करण:- हे महाबाहु, अर्जुन! इस प्रकार से तुम अपने आपको इस भौतिक वस्तुओं, इंद्रियों, मन तथा बुद्धि से परे जानकर और अपने मन को सावधानी पूर्वक आध्यात्मिक ज्ञान से स्थिर करके आध्यात्मिक शक्ति द्वारा इस काम-रूपी दुर्जय एवं विनाशकारी शत्रु (काम, क्रोध और लालची मन) पर विजय प्राप्त करो। (43वें श्लोक) |
5 Important Teaching of Karm Yog | कर्मयोग की पांच महत्वपूर्ण शिक्षाएं
1. कर्म ही धर्म है: भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि कर्म करना मनुष्य का परम धर्म है। बिना किसी फल की चिंता किए अपने कर्तव्यों का पालन करना ही सच्चा कर्मयोग है। इससे न केवल व्यक्ति का व्यक्तिगत विकास होता है, बल्कि समाज और देश का भी कल्याण होता है। |
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2. निष्काम कर्म: श्रीकृष्ण ने अर्जुन को सिखाया कि कर्म करते समय फल की इच्छा नहीं करनी चाहिए। निष्काम कर्म का मतलब है, बिना किसी स्वार्थ के अपना कर्तव्य निभाना। ऐसा करने से मनुष्य के मन में संतोष और शांति बनी रहती है, और वह अपने जीवन के उद्देश्य को समझ पाता है। |
3. स्वधर्म का पालन: प्रत्येक व्यक्ति को अपने कर्तव्य और स्वधर्म का पालन करना चाहिए, चाहे वह कितना भी कठिन क्यों न हो। श्रीकृष्ण ने अर्जुन को समझाया कि अपने स्वधर्म का पालन करना ही जीवन का वास्तविक अर्थ है। अपने कर्तव्यों एवं कर्मों को त्याग कर दूसरे के धर्म एवं कर्म का अनुसरण करना अनुचित है। |
4. आत्म-संयम: कर्मयोग का एक महत्वपूर्ण हिस्सा आत्म-संयम है। भगवान कहते हैं कि इंद्रियों पर संयम रखना और मन को नियंत्रित करना अत्यंत आवश्यक है। आत्म-संयम के माध्यम से व्यक्ति अपनी इच्छाओं और वासनाओं पर विजय प्राप्त कर सकता है, जिससे वह अपने कर्मों को सही दिशा में ले जा सकता है। |
5. यज्ञभाव या समर्पण भाव से कर्म करना: श्रीकृष्ण ने यज्ञभाव अर्थात् समर्पण भाव से कर्म करने का महत्व बताया है। यज्ञ का मतलब है, किसी भी कार्य को ईश्वर को अर्पित करना। जब हम अपने कर्मों को यज्ञ के रूप में करते हैं, तो हमारा मन पवित्र और निष्कलंक हो जाता है। यह भावना हमें हमारे कर्मों में सफलता और आत्म-संतोष दिलाती है। |
Conclusion of Geeta - Karm Yog | भगवत गीता कर्मयोग का सारांश
FAQ: About Bhagwat Geeta Karm Yog | श्रीमद् भगवत गीता प्रश्नोत्तरी - कर्म योग
1. श्रीमद्भगवद्गीता के तीसरे अध्याय का मुख्य विषय क्या है? ॐ: श्रीमद्भगवद्गीता के तीसरे अध्याय का मुख्य विषय "कर्म योग" है, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को निष्काम कर्म की महिमा समझाते हैं। इस अध्याय में कर्म करने का महत्व और उससे मिलने वाली शांति के बारे में विस्तृत रूप से बताया गया है। |
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2. कर्म योग का पालन कैसे किया जा सकता है? ॐ: कर्म योग का पालन करने के लिए व्यक्ति को अपने कर्तव्यों का पालन पूरी निष्ठा और समर्पण के साथ करना चाहिए, और उसके फलों के प्रति आसक्त नहीं होना चाहिए। इसमें स्वार्थ, लोभ, और अहंकार से मुक्त होकर काम करना आवश्यक है। |
3. निष्काम कर्म क्या होता है? ॐ: निष्काम कर्म वह कर्म है जिसे बिना किसी फल की इच्छा के किया जाता है। इसका अर्थ है कि व्यक्ति अपने कर्तव्यों का पालन पूरी निष्ठा और समर्पण के साथ करता है, लेकिन उसके परिणामों के प्रति आसक्त नहीं होता। |
4. अर्जुन को श्रीकृष्ण ने कर्म योग का उपदेश क्यों दिया? ॐ: अर्जुन युद्ध के मैदान में अपने कर्तव्यों को लेकर भ्रमित और दुखी था। उसने अपने परिजनों और मित्रों के खिलाफ युद्ध करने से इनकार कर दिया था। ऐसे में श्रीकृष्ण ने उसे कर्म योग का उपदेश देकर कर्तव्यों का पालन करने के महत्व को समझाया और निष्काम कर्म की राह दिखाई। |
5. कर्म और कर्मफल में क्या अंतर है? ॐ: कर्म का अर्थ है कर्तव्य या कार्य, जो व्यक्ति अपने जीवन में करता है। कर्मफल का अर्थ है उन कार्यों के परिणाम या फल। गीता में यह सिखाया गया है कि व्यक्ति को अपने कर्म पर ध्यान देना चाहिए, न कि उसके फलों पर। |
6. कर्म योग का क्या महत्व है? ॐ: कर्म योग का महत्व इस बात में है कि यह व्यक्ति को अपने कर्तव्यों का पालन करने के लिए प्रेरित करता है, बिना किसी फल की चिंता किए। इससे व्यक्ति मन की शांति और आत्मिक उन्नति प्राप्त करता है। |
7. भगवत गीता के अनुसार कर्म योग क्या है? ॐ: श्रीकृष्ण ने गीता का उपदेशों में कर्मयोग को समझाते हुए कहा कि हर व्यक्ति का अपना एक विशेष कर्तव्य होता है, जिसको करना ही उसका परम धर्म होता है। बिना किसी स्वार्थ और कर्म फल की चिंता किए उस कर्म को निष्काम भाव से अपना कर्तव्य समझकर करना ही "कर्मयोग" है तथा ऐसे निष्काम कर्म से ही मनुष्य अपने गंतव्य तक पहुंच पाता है यानी कि वह परमात्मा को प्राप्त होता है। साथ ही बिना किसी को हानि या दुःख पहुंचकर निष्काम कर्म करना भी सच्चा कर्मयोग है। |
8. कर्मयोग और ज्ञानयोग में क्या अंतर है? ॐ: कर्मयोग में व्यक्ति अपने कर्तव्यों का पालन निष्काम भावना से करता है, जबकि ज्ञानयोग में व्यक्ति आत्मा और परमात्मा के ज्ञान के माध्यम से मोक्ष प्राप्त करने का प्रयास करता है। कर्मयोग में कर्म प्रमुख होता है, जबकि ज्ञानयोग में ज्ञान प्रमुख होता है। |
9. श्रीमद्भगवद्गीता के तीसरे अध्याय में तपस्या का क्या महत्व है? ॐ: गीता के तीसरे अध्याय में तपस्या का महत्व इस बात में बताया गया है कि तपस्या के द्वारा व्यक्ति अपने मन और इंद्रियों को नियंत्रित कर सकता है। इससे व्यक्ति अपने कर्तव्यों का पालन सही तरीके से कर सकता है और आत्मिक शांति प्राप्त कर सकता है। |
10. श्रीकृष्ण ने अर्जुन को कर्मयोग का पालन करने के लिए कौन-कौन से उपदेश दिए? ॐ: श्रीकृष्ण ने अर्जुन को निम्नलिखित उपदेश दिए:-
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11. भगवत गीता में कर्म योग का उल्लेख कहां है? ॐ: भगवत गीता में कुल 18 अध्याय तथा 700 श्लोकों का अमृत ज्ञान है। इसमें कई प्रकार के योग का वर्णन मिलता है लेकिन भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में सबसे अधिक महत्व कर्म योग को दिया है, जिस कर्म योग का उल्लेख हमें भगवत गीता के तीसरे अध्याय में मिलता है। |
12. गीता के अनुसार कर्म कितने प्रकार के होते हैं? ॐ: भगवान श्रीकृष्ण ने गीता के तीसरे अध्याय 'कर्म योग' में अर्जुन को कर्म योग यानी कर्म को समझाते हुए कहा कि इस संसार में कर्म दो प्रकार के होते हैं, जिसमें से पहला है साकाम कर्म तथा दूसरा निष्काम कर्म है। साकाम कर्म का अर्थ है ऐसा कर्म जो किसी कर्म फल की प्राप्ति के लिए, अपने लाभ या अपने किसी स्वार्थ को पूरा करने के उद्देश्य से किया जाता है, साकाम कर्म कहा जाता है और निष्काम कर्म ऐसे कर्मों को कहा जाता है, जिसमें मनुष्य बिना किसी लोभ या लालच आकर, बिना किसी कर्म फल की चिंता किये बिना निःस्वार्थ भाव से कर्म करते हुए अपना तथा अन्य लोगों एवं जीवों के लिए कल्याणकारी कार्य करता है, ऐसा कर्म ही निष्काम कर्म कहलाता है। |
13. वास्तव में सच्चा कर्मयोगी कौन है? ॐ: सच्चा कर्मयोगी वह है जो अपने सभी कार्यों को ईश्वर को अर्पित कर निष्काम भाव से करता है। उसे कर्म का फल चाहिए नहीं होता, बल्कि वह अपनी जिम्मेदारियों का पालन ही अपना धर्म समझता है। |
14. कौन सा कर्म श्रेष्ठ है? ॐ: गीता के अनुसार, वही कर्म श्रेष्ठ है जो निष्काम भाव से किया गया हो। यानी बिना किसी फल की इच्छा के किया गया कर्म ही सबसे श्रेष्ठ माना गया है। |
15. सबसे बड़ा कर्म क्या है? ॐ: सबसे बड़ा कर्म अपने कर्तव्यों का पालन करना है। गीता में कहा गया है कि अपने धर्म और कर्तव्यों का पालन करना ही सबसे बड़ा कर्म है, चाहे वह कितना भी छोटा क्यों न हो। |
16. भगवत गीता के अनुसार कर्म का नियम क्या है? ॐ: भगवत गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि मनुष्य को वेदों में निर्देशित कर्म को ही करना चाहिए। वेदों में कर्म का नियम बताया गया है कि कौन सा कर्म मनुष्यों को करना चाहिए और कौन सा कर्म नहीं करना चाहिए। वेद कहता है कि मनुष्य को ऐसा कर्म करना चाहिए, जिससे उसके साथ-साथ अन्य जीवों कल्याण हो सके। |
17. कृष्ण के अनुसार कर्म क्या है? ॐ: भगवान श्रीकृष्ण के अनुसार कर्म का मूल उद्देश्य आत्मा की उन्नति और समाज की भलाई करना है। श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार, मनुष्य को अपने कर्तव्यों का पालन निष्काम भाव से करना चाहिए ताकि जीवन में संतुलन और शांति प्राप्त हो सके। |
18. मनुष्य के अच्छे कर्म क्या हैं? ॐ: मनुष्य के अच्छे कर्म वे होते हैं जो परमार्थ के लिए किए जाते हैं। इसमें सत्य बोलना, दूसरों की मदद करना, परोपकार, और अपनी जिम्मेदारियों का ईमानदारी से पालन करना शामिल है। |
19. गीता के अनुसार कर्मों का फल कैसे मिलता है? ॐ: गीता के अनुसार, कर्मों का फल हमारे कर्मों के अनुसार ही मिलता है। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि हर कर्म का फल निश्चित है, लेकिन हमें फल की चिंता किए बिना अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए। |
20 गीता में कर्म के बारे में क्या लिखा है? ॐ: गीता में लिखा है कि कर्म करना हर व्यक्ति का धर्म है। भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को उपदेश देते हुए कहते हैं कि बिना कर्मफल की चिंता किए कर्म करना ही सच्चा धर्म है। इसे निष्काम कर्म कहा जाता है। |
🚩🚩🚩ॐ भगवते वासुदेवाय नमो नमः🚩🚩🚩
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