Shrimad Bhagwat Geeta :7वां अध्याय ज्ञान विज्ञान योग- श्रीकृष्ण के उपदेशों का सबसे अनमोल खजाना | Shrimad Bhagwat Geeta Gyan Vigyan Yog
श्रीमद् भागवत गीता भारतीय धर्म, दर्शन और आध्यात्मिकता का एक अद्वितीय ग्रंथ है। इसमें भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन के बीच हुए संवाद को दर्शाया गया है। गीता के 18 अध्यायों में जीवन के विभिन्न पहलुओं, कर्तव्यों और योग के मार्गों की विस्तृत व्याख्या की गई है। इनमें से एक अत्यंत महत्वपूर्ण अध्याय है "ज्ञान विज्ञान योग", जो श्रीमद्भागवत गीता का 7वां अध्याय है। यह अध्याय अद्वितीय ज्ञान और विज्ञान की महिमा का वर्णन करता है और जीवन की गहनतम सच्चाइयों को उजागर करता है। ज्ञान विज्ञान योग, भगवद गीता का महत्वपूर्ण अध्याय है, जो जीवन के वास्तविक उद्देश्य और आत्मज्ञान की प्राप्ति के मार्ग को स्पष्ट करता है। इस योग के अभ्यास से व्यक्ति न केवल आत्मा और परमात्मा के संबंध को समझ सकता है, बल्कि मानसिक शांति और मोक्ष की प्राप्ति भी कर सकता है। Bhagwat Geeta Gyan Vigyan Yog के इस अध्याय को गहनता से अध्ययन करने पर हमें जीवन के वास्तविक अर्थ का बोध होता है और हम अपने जीवन को एक सही दिशा में अग्रसर कर सकते हैं।
Shrimad Bhagwat Geeta Gyan Vigyan Yog | श्रीमद्भागवत गीता ज्ञान विज्ञान योग
What is Gyan Vigyan Yog | ज्ञान विज्ञान योग क्या है?
- ज्ञान: सैद्धांतिक ज्ञान या शास्त्रों में वर्णित ज्ञान।
- विज्ञान: प्रत्यक्ष अनुभव और आध्यात्मिक अनुभूति से प्राप्त ज्ञान।
Importance of Gyan Vigyan Yog | ज्ञान और विज्ञान का महत्व और विशेषताएं
1. परमात्मा का स्वरूप: भगवान श्रीकृष्ण ने इस अध्याय में कहा है कि वे ही संपूर्ण सृष्टि के मूल कारण हैं। वे ही सृष्टि के रचयिता, पालनकर्ता और संहारकर्ता हैं। उनका स्वरूप अनंत और अद्वितीय है। |
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2. माया का प्रभाव: इस अध्याय में भगवान ने बताया है कि माया के कारण जीव भगवान को नहीं पहचान पाते। माया एक शक्तिशाली आवरण है जो जीव को परमात्मा के वास्तविक स्वरूप से अज्ञात रखता है। |
3. भक्ति का महत्व: भगवान श्रीकृष्ण ने भक्ति को सबसे सरल और श्रेष्ठ मार्ग बताया है। भक्ति के माध्यम से ही जीव परमात्मा को प्राप्त कर सकता है। भक्ति से ही माया का आवरण हटता है और जीव परमात्मा के सच्चे स्वरूप को पहचानता है। |
4. संसार का असत्य स्वरूप: भगवान ने कहा है कि यह संसार असत्य और नश्वर है। इसे स्थायी समझना मूर्खता है। सत्य केवल परमात्मा है और उन्हीं की शरण में जाने से ही सच्ची शांति और मोक्ष की प्राप्ति होती है। |
5. भगवान श्रीकृष्ण का दिव्य स्वरूप : भगवान श्रीकृष्ण ने इस अध्याय में अपने दिव्य स्वरूप का वर्णन किया है। उन्होंने कहा कि सम्पूर्ण सृष्टि में जो कुछ भी है, वह सब उन्हीं के द्वारा उत्पन्न और संचालित है। उन्होंने यह भी बताया कि वे सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के परम कारण हैं और उनकी अनंत शक्तियों का कोई अंत नहीं है। वे सम्पूर्ण जीव-जंतुओं, पेड-पौधों, और प्रकृति के प्रत्येक तत्व में विद्यमान हैं। |
Bhagwat Geeta Gyan Vigyan Yog Shlok 1-10 | भगवत गीता अध्याय 7 श्लोक १-१०
भगवद गीता का यह ज्ञान विज्ञान योग अध्याय हमें जीवन में संतुलन, शांति, और सच्चे आध्यात्मिक ज्ञान की प्राप्ति का मार्ग दिखाता है। इसके अभ्यास से हम न केवल आत्मा के सच्चे स्वरूप को पहचान सकते हैं, बल्कि परमात्मा के साक्षात्कार की दिशा में भी अग्रसर हो सकते हैं। आइए अब इसके ज्ञान-विज्ञान को समझने का प्रयास करें।
श्रीभगवानुवाच :- मय्यासक्तमनाः पार्थ योगं युञ्जन्मदाश्रयः । असंशयं समग्रं मां यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु ॥१॥ |
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भगवत गीता अध्याय 7 ज्ञान विज्ञान योग हिंदी संस्करण:- भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं - हे पार्थ (अर्जुन)! अब सुनो कि तुम अपना अनन्त प्रेम दिखाते हुए मुझको अपने मन में रख, सच्चे भाव रखते हुए अपने योग में लगा रहे, मैं तुम्हें विभूति, बल, ऐश्वर्य आदि गुणों से युक्त मेरे अपने समस्त स्वरूपों के बारे में बताउंगा ताकि तू मेरे विषय में कोई (किसी प्रकार का) संशय न रखे । (प्रथम श्लोक) |
ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषत: । यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते ॥२॥ |
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भगवत गीता अध्याय 7 ज्ञान विज्ञान योग हिंदी संस्करण:- अब मैं तुमसे पूर्णरूप से व्यावहारिक तथा दिव्यज्ञान (यानी इस संसार का सबसे बड़ा ज्ञान या तत्वज्ञान, जिस ज्ञान को प्राप्त कर बुद्धिमान पुरुष परमात्मा को भी प्राप्त कर सकते हैं और अपने कर्म बन्धन के बन्धनों से मुक्त हो कर मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं) को बताने जा रहा हूं। इस तत्वज्ञान को जान लेने के बाद तुम्हें और किसी ज्ञान (तत्वज्ञान) को जानने की कोई आवश्यकता नहीं होगी क्योंकि इस संसार का कोई भी ज्ञान परमात्मा (मोक्ष की प्राप्ति) को पाने के ज्ञान से बढ़कर नहीं है। (द्वितीय श्लोक) |
मनुष्याणां सहस्त्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये । यतता सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वत: ॥३॥ |
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भगवत गीता अध्याय 7 ज्ञान विज्ञान योग हिंदी संस्करण:- कई हजार मनुष्यों में से कोई एक सिद्धि (वास्तविक तत्वज्ञान) के लिए प्रयत्नशील होता है और इस तरह सिद्धि प्राप्त करने वालों में से कोई एक विरला मनुष्य ही होता है जो मुझे वास्तविकता में जान पाता है। (तृतीय श्लोक) |
भूमिरापोऽनलो वायु: खं मनो बुद्धिरेव च । अहङ्कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ॥४॥ |
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भगवत गीता 7 ज्ञान विज्ञान योग हिंदी संस्करण:- पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि तथा अहंकार --- ये सभी आठ प्रकार से विभक्त मेरी ही विभिन्न (पृथक्-पृथक्/भिन्न-भिन्न) प्रकृतियां (शक्तियां) हैं। (चतुर्थ श्लोक) |
अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम् । जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत् ॥ ५॥ |
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भगवत गीता 7 ज्ञान विज्ञान योग हिंदी संस्करण:- हे महाबाहु अर्जुन! इनके अतिरिक्त मेरी एक अन्य परा शक्ति है, जो उन जीवों से युक्त है, जो इस भौतिक अपरा (परम् चेतना) प्रकृति के साधनों का विदोहन कर रहे हैं। (पंचम श्लोक) |
एतद्योनीन भूतानि सर्वाणीत्युपधारय । अहं कृत्स्न्नस्य जगत: प्रभव: प्रलयस्तथा ॥६॥ |
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भगवत गीता 7 ज्ञान विज्ञान योग हिंदी संस्करण:- समस्त प्राणियों का उद्भव इन दोनों शक्तियों में है, उसकी उत्पत्ति तथा प्रलय का कारण मुझे ही जानो । (षष्ठम श्लोक) |
मत्त: परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय । मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव ॥७॥ |
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भगवत गीता 7 ज्ञान विज्ञान योग हिंदी संस्करण:- हे धनंजय (अर्जुन)! मुझसे श्रेष्ठ अन्य कुछ भी सत्य नहीं है । जिस प्रकार मोतीयों की माला धागे में गुंथे रहते हैं, ठीक उसी प्रकार सब कुछ मुझ पर ही आश्रित है। (सप्तम श्लोक) |
रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययो: । प्रणव: सर्ववेदेषु शब्द: खे पौरुषं नृषु ॥८॥ |
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भगवत गीता 7 ज्ञान विज्ञान योग हिंदी संस्करण:- हे कुन्तीपुत्र अर्जुन! मैं जल का स्वाद हूं, सूर्य तथा चन्द्रमा का प्रकाश हूं, वैदिक मंत्रों में ओंकार (ॐ) हूं, आकाश में ध्वनि हूं तथा मनुष्य में सामर्थ्य (शक्ति/पुरुषार्थ) हूं। (अष्टम श्लोक) |
पुण्यो गन्ध: पृथिव्यां च तेजश्चास्मि विभावसौ । जीवनं सर्वभूतेषु तपश्चास्मि तपस्विषु ॥९॥ |
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भगवत गीता 7 ज्ञान विज्ञान योग हिंदी संस्करण:- मैं पृथ्वी की मूल सुगंध हूं और अग्नि की ऊष्मा हूं। मैं ही समस्त जीवों का जीवन हूं तथा तपस्वियों का तप भी मैं ही हूं। (नवम श्लोक) |
बीजं मां सर्वभूतानां विद्धि पार्थ सनातनम् । बुद्धिर्बुद्धिमतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम् ॥१०॥ |
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भगवत गीता 7 ज्ञान विज्ञान योग हिंदी संस्करण:- हे पार्थ! यह जान लो कि मैं ही समस्त जीवों का आदि बीज हूं, बुद्धिमानों की बुद्धि तथा समस्त तेजस्वी पुरुषों का तेज हूं । (दशम श्लोक) |
Bhagwat Geeta Gyan Vigyan Yog Shlok 11-20 | भगवत गीता अध्याय 7 श्लोक ११-२०
बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम् । धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ ॥११॥ |
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भगवत गीता 7 ज्ञान विज्ञान योग हिंदी संस्करण:- 1 हे पार्थ! बलवानों का बल (कामनाओं व इच्छा से रहित बल) हूं। हे भरतश्रेष्ठ अर्जुन मैं समस्त जीवों का वो काम हूं, जो धर्म के विरुद्ध नहीं हूं। (11वें श्लोक) |
ये चैव सात्त्विका भावा राजसास्तामसाश्च ये । मत्त एवेति तान्विद्धि न त्वहं तेषु ते मयि ॥१२॥ |
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भगवत गीता 7 ज्ञान विज्ञान योग हिंदी संस्करण:- तुम जान लो कि मेरी शक्ति द्वारा ही सारे गुण प्रकट होते हैं, चाहें वे सतोगुण हों, रजोगुण हों या फिर तमोगुण हों एक प्रकार से मैं सब कुछ हूं लेकिन मैं स्वतंत्र हूं। मैं प्रकृति के अधीन नहीं हूं, अपितु वे (प्रकृति के तीनों गुण) मेरे अधीन हैं। (12वें श्लोक) |
त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभि: सर्वमिदं जगत् । मोहितं नाभिजानाति मामेभ्य: परमव्ययम् ॥१३॥ |
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भगवत गीता 7 ज्ञान विज्ञान योग हिंदी संस्करण:- प्रकृति के तीन गुणों (सतोगुण, रजोगुण तथा तमोगुण) के द्वारा मोहग्रसत यह सारा संसार मुझ परम सनातन सत्य तथा अविनाशी को नहीं जानता । (13वें श्लोक) |
दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया । मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ॥१४॥ |
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भगवत गीता 7 ज्ञान विज्ञान योग हिंदी संस्करण:- प्रकृति के तीन गुणों से युक्त मेरी माया को पार कर पाना कठिन है। किन्तु जो मेरी शरण ग्रहण करते हैं और मेरी सेवा (परमात्मा में आस्था और विश्वास कर अपने सभी कर्तव्य एवं कर्मों को निष्काम भाव तथा खुद को अकर्ता मानते हुए करता है) ही अपनी सम्पूर्ण जीवन व्यतीत करता है, वे मनुष्य इसे अर्थात् प्रकृति के तीनों गुणों से युक्त सांसारिक माया जाल को सरलता से पार कर जाते हैं। (14वें श्लोक) |
न मां दुष्कृतिनो मूढा: प्रपद्यन्ते नराधमा: । माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिता: ॥१५॥ |
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भगवत गीता 7 ज्ञान विज्ञान योग हिंदी संस्करण:- जो निपट मूर्ख हैं, जो मनुष्यों में सबसे बड़े अधम व दुष्ट हैं, जिनके ज्ञान को माया के द्वारा हर लिया गया है तथा जो असुरों की नास्तिक प्रकृति को धारण करने वाले हैं, ऐसे दुष्ट मनुष्य मेरी शरण को ग्रहण नहीं करते। (15वें श्लोक) |
चतुर्विधा भजन्ते मां जना: सुकृतिनोऽर्जुन । आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ ॥१६॥ |
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भगवत गीता 7 ज्ञान विज्ञान योग हिंदी संस्करण:- हे भरतश्रेष्ठ अर्जुन! चार प्रकार के पुण्यात्मा मेरी सेवा करते हैं --- आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी तथा ज्ञानी । [अर्थात् उन चारों पुण्यात्माओं का सही अर्थ आर्त - विपदाओं से ग्रसित / पीड़ित), जिज्ञासु (ज्ञान के जिज्ञासु), अर्थार्थी (लाभ की अभिलाषा रखने वाले) तथा ज्ञानी (वस्तुओं को सही रूप से जानने वाले / तत्त्वज्ञ)]। (16वें श्लोक) |
तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते । प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रिय: ॥१७॥ |
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भगवत गीता 7 ज्ञान विज्ञान योग हिंदी संस्करण:- इनमें से जो परम ज्ञानी है और शुद्ध भक्ति में लगा रहता है, वह सर्वश्रेष्ठ है क्योंकि मैं उसे अत्यंत प्रिय हूं और वह मुझे भी अत्यन्त प्रिय है। (17वें श्लोक) |
उदारा: सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम् । आस्थित: स हि युक्तामा मामेवानुत्तमां गतिम् ॥१८॥ |
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भगवत गीता 7 ज्ञान विज्ञान योग हिंदी संस्करण:- निस्संदेह ये सब उदारचेता (विशाल हृदय वाले) व्यक्ति हैं, किन्तु जो मेरे ज्ञान को प्राप्त है, उसे मैं अपने ही समान मानता हूं । वह मेरी दिव्य सेवा में तत्पर रहकर मुझ सर्वोच्च उद्देश्य को निश्चित रूप से प्राप्त करता है। (18वें श्लोक) |
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते । वासुदेव: सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभ: ॥१९॥ |
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भगवत गीता 7 ज्ञान विज्ञान योग हिंदी संस्करण:- 9 अनेकों जन्म-जन्मांतर के बाद जिसे वास्तविक ज्ञान का बोध होता है, वह मुझे ही समस्त कारणों का कारण जानकर मेरी शरण में आता है। ऐसा महात्मा अत्यंत दुर्लभ होता है। (19वें श्लोक) |
कामैस्तैस्तैर्हृतज्ञाना: प्रपद्यन्तेऽन्यदेवता: । तं तं नियममास्थाय प्रकृत्या नियता: स्वया ॥२०॥ |
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भगवत गीता 7 ज्ञान विज्ञान योग हिंदी संस्करण:- जिनकी बुद्धि भौतिक इच्छाओं द्वारा विहीन है, वे देवताओं की शरण में जाते हैं और वे अपने-अपने स्वाभाव के अनुसार पूजा के विशेष विधि-विधानों का पालन करते हैं। (20वें श्लोक) |
Bhagwat Geeta Gyan Vigyan Yog Shlok 21-30 | भगवत गीता अध्याय 7 श्लोक २१-३०
यो यो यां यां तनुं भक्त: श्रद्धयार्चितुमिच्छति । तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम् ॥२१॥ |
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भगवत गीता 7 ज्ञान विज्ञान योग हिंदी संस्करण:- मैं ही समस्त जीवों के हृदयों में परमात्मा स्वरूप (आत्मा के रूप में) स्थित हूं। जैसे ही कोई किसी देवी-देवता की पूजा करने की इच्छा करता है, मैं उसकी श्रद्धा को उसके ही पूज्य (श्रद्धेय) देवी-देवता में स्थिर करता हूं, जिससे वह उसी विशेष देवी या देवता की भक्ति कर सके । (21वें श्लोक) |
स तया श्रद्धया युक्तस्तस्याराधनमीहते । लभते च ततः कामान्मयैव विहितान्हि तान् ॥२२॥ |
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भगवत गीता 7 ज्ञान विज्ञान योग हिंदी संस्करण:- ऐसी श्रद्धा से समन्वित वह देवता (देवी या देवता) विशेष की करने का यत्न करता है और अपने इच्छाओं की पूर्ति करता है। किन्तु वास्तविकता तो यही है कि ये सारे लाभ केवल मेरे द्वारा ही प्रदत्त हैं। (22वें श्लोक) |
अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम् । देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यान्ति मामपि ॥२३॥ |
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भगवत गीता 7 ज्ञान विज्ञान योग हिंदी संस्करण:- अल्पबुद्धि युक्त व्यक्ति देवताओं की पूजा करते हैं और उन्हें उनका फल भी प्राप्त होता है, लेकिन ये फल सीमित तथा क्षणिक होते हैं। देवताओं की पूजा करने वाले देवलोक को जाते हैं, किन्तु मेरे भक्त अन्ततः मेरे परमधाम को प्राप्त होते हैं। (23वें श्लोक) |
अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धय: । परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम् ॥२४॥ |
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भगवत गीता 7 ज्ञान विज्ञान योग हिंदी संस्करण:- 4 बुद्धिहीन (नासमझ /मूर्ख) व्यक्ति मुझको ठीक से न जानने के कारण सोचते हैं कि मैं (भगवान श्रीकृष्ण, परमपिता परमेश्वर व परब्रह्म) पहले निराकार था और अब मैंने इस रूप को धारण किया है । वे अपने अल्पज्ञान (ज्ञान की कमी) के कारण मेरी अविनाशी तथा सर्वोच्च प्रकृति को नहीं जान पाते। (24वें श्लोक) |
नाहं प्रकाश: सर्वस्य योगमायासमावृत: । मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम् ॥२५॥ |
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भगवत गीता 7 ज्ञान विज्ञान योग हिंदी संस्करण:- मैं मूर्खों तथा अल्पज्ञों के लिए कभी भी प्रकट नहीं हूं। उनके लिए तो मैं अपनी अतरंगा (मोह-माया) शक्ति द्वारा आच्छादित (ढका रहता) रहता हूं, अतः वे यह कभी जान नहीं पाते कि मैं अजन्मा तथा अविनाशी हूं। (25वें श्लोक) |
वेदाहं समतीतानि वर्तमानानि चार्जुन । भविष्याणि च भूतानि मां तुम वेद न कश्चन ॥२६॥ |
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भगवत गीता 7 ज्ञान विज्ञान योग हिंदी संस्करण:- हे अर्जुन! मैं परब्रह्म (श्रीभगवान) होने के नाते सब कुछ जानता हूं, जो भूतकाल में घटित हो चुका है, जो वर्तमान में घटित हो रहा है और जो आगे आने वाले भविष्य में घटित होने वाला है । मैं समस्त जीवों को भी जानता हूं, किन्तु मुझे कोई भी नहीं जानता। (26वें श्लोक) |
इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत । सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप ॥२७॥ |
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भगवत गीता 7 ज्ञान विज्ञान योग हिंदी संस्करण:- हे भरतवंशी परन्तप अर्जुन! समस्त जीव जन्म लेकर इच्छा तथा घृणा से उत्पन्न द्वन्द्वों से मोहग्रसत होकर मोह को प्राप्त होते हैं। (27वें श्लोक) |
येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम् । ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता भजन्ते मां दृढव्रता: ॥२८॥ |
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भगवत गीता अध्याय 7 ज्ञान विज्ञान योग हिंदी संस्करण:- जिन भी मनुष्यों ने पूर्वजन्मों में तथा इस जन्म में पुण्यकर्म किये हैं और जिनके पापकर्मों का पूर्णतया उच्छेदन (अर्थात् जिन्होंने अपने सभी पापकर्मों का फल भोग लिया है) हो चुका है, वे मोह के द्वन्द्वों से मुक्त हो जाते हैं और वे संकल्प पूर्वक मेरी सेवा में तत्पर रहते हैं। (28वें श्लोक) |
जरामरणमोक्षाय मामाश्रित्य यतन्ति ये । ते ब्रह्म तद्विदु: कृत्स्न्नमध्यात्मं कर्म चाखिलम् ॥२९॥ |
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भगवत गीता 7 ज्ञान विज्ञान योग हिंदी संस्करण:- जो वृद्धावस्था तथा मृत्यु से मुक्ति पाने के लिए यत्नशील रहते हैं, वे बुद्धिमान पुरुष मेरी भक्ति की शरण को ग्रहण करते हैं। वास्तविक रूप में वे ब्रह्म हैं क्योंकि वे अपने दिव्य कर्मों के विषय में पूरी तरह जानते हैं। (29वें श्लोक) |
साधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञं च ये विदु: । प्रयाणकालेऽपि च मां ते विदुर्युक्तचेतस: ॥३०॥ |
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भगवत गीता अध्याय 7 ज्ञान विज्ञान योग हिंदी संस्करण:- जो मझ परमेश्वर को अपनी पूर्ण चेतना से मुझे सम्पूर्ण जगत का, समस्त देवताओं का तथा समस्त यज्ञविधियों (भौतिक जगत को चलाने वाले सिद्धांतों तथा समस्त यज्ञों को नियंत्रित करने वाले) का नियामक जानते हैं, वे अपनी मृत्यु के समय भी मुझ भगवान को जान और समझ सकते हैं। (30वें श्लोक) |
अतः ज्ञान श्रीमद्भगवद गीता का 7वां अध्याय ज्ञान विज्ञान योग समाप्त होता है, जिसका का सारांश इस प्रकार है कि यह अध्याय व्यक्ति को आत्म-ज्ञान और आत्म-साक्षात्कार की दिशा में प्रेरित करता है। भगवान श्रीकृष्ण ने अपने दिव्य ज्ञान और विज्ञान के माध्यम से अर्जुन को जीवन की वास्तविकता और सत्य का अनुभव कराया। उन्होंने अर्जुन को बताया कि सम्पूर्ण सृष्टि में जो कुछ भी है, वह सब उन्हीं के द्वारा संचालित है और उन्हें पहचानने के लिए सच्चे ज्ञान और विज्ञान का होना आवश्यक है।
Important Learnings of Gyan Vigyan Yog | ज्ञान विज्ञान योग की 5 महत्वपूर्ण शिक्षाएं
1. सभी जीवों में ईश्वर का वास: भगवान श्रीकृष्ण ने बताया है कि सभी जीवों में ईश्वर का वास है और सभी जीव आत्मा के रूप में एक ही ईश्वर के अंश हैं। |
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2. भक्ति की महत्ता: भक्ति और श्रद्धा से ही व्यक्ति परमात्मा को प्राप्त कर सकता है। बिना भक्ति के ज्ञान अधूरा है। |
3. सांसारिक वस्त्रों से विरक्ति: संसारिक वस्त्रों और माया के मोह से मुक्त होकर ही व्यक्ति सच्चे ज्ञान की प्राप्ति कर सकता है। |
4. धर्म का पालन: धर्म का पालन और सत्यनिष्ठा से ही व्यक्ति अपने जीवन को सार्थक बना सकता है।। |
5. संसार में कर्म का महत्व: भगवान श्रीकृष्ण ने कर्मयोग का महत्व बताया है। सही और धर्मपूर्ण कर्म ही व्यक्ति को मोक्ष की ओर ले जाते हैं। |
Conclusion of Gyan Vigyan Yog | गीता के ज्ञान विज्ञान योग अध्याय का सार
FAQs: Bhagwat Geeta Chapter 7 Gyan Vigyan Yog | श्रीमद् भागवत गीता प्रश्नोत्तरी- ज्ञान विज्ञान योग
1. भगवद गीता का अध्याय 7 क्या समझाता है? ॐ: भगवद गीता के 7वें अध्याय का शीर्षक "ज्ञान विज्ञान योग" है। इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को ज्ञान (सिद्धांतात्मक ज्ञान) और विज्ञान (प्रायोगिक ज्ञान) के महत्व को समझाते हैं। वे बताते हैं कि कैसे एक व्यक्ति अपनी आत्मा को पहचान सकता है और परमात्मा के साथ एकाकार हो सकता है। इस अध्याय में यह भी समझाया गया है कि भगवान सर्वव्यापी हैं और सृष्टि की प्रत्येक वस्तु में विद्यमान हैं। |
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2. ज्ञान और विज्ञान का क्या अर्थ? ॐ: ज्ञान का अर्थ है सिद्धांतात्मक या सैद्धांतिक ज्ञान, जो हमें शास्त्रों, ग्रंथों और शिक्षकों से प्राप्त होता है। यह हमें बताता है कि परमात्मा क्या हैं, वे कैसे सृष्टि का संचालन करते हैं, और हमारे जीवन का उद्देश्य क्या है। विज्ञान का अर्थ है प्रायोगिक ज्ञान या अनुभूत ज्ञान, जो हमें स्वयं के अनुभव और साधना के माध्यम से प्राप्त होता है। यह ज्ञान हमें यह समझने में मदद करता है कि जो सिद्धांत हम पढ़ते हैं, वे वास्तव में हमारे जीवन में कैसे लागू होते हैं। |
3. भगवान श्रीकृष्ण ने अध्याय 7 में कितने प्रकार के ज्ञान का वर्णन किया है? ॐ: भगवान श्रीकृष्ण ने अध्याय 7 में दो प्रकार के ज्ञान का वर्णन किया है - परा विद्या (उच्च ज्ञान) और अपरा विद्या (निम्न ज्ञान)। |
4. भगवान श्रीकृष्ण ने किसे सर्वश्रेष्ठ भक्त माना है? ॐ: भगवान श्रीकृष्ण ने सर्वश्रेष्ठ भक्त के रूप में उस व्यक्ति को माना है जो उन्हें अखंड और निरंतर भक्ति करता है। इस प्रकार का भक्त भगवान को अपने जीवन का सर्वोच्च उद्देश्य मानता है और अपने समस्त कर्मों को भगवान के चरणों में समर्पित करता है। ऐसा व्यक्ति स्थिर चित्त और सच्ची श्रद्धा से भगवान की आराधना करता है। |
5. परा और अपरा विद्या में क्या अंतर है? ॐ: अपरा विद्या भौतिक ज्ञान को संदर्भित करती है जबकि परा विद्या आत्मा और परमात्मा के ज्ञान को संदर्भित करती है। भगवद गीता के 7वें अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण द्वारा परा और अपरा विद्या का उल्लेख इस प्रकार किया गया है। अपरा विद्या: यह निचली या स्थूल विद्या है जो भौतिक ज्ञान और विज्ञान से संबंधित है। इसमें वेद, शास्त्र, और अन्य सांसारिक विद्याएँ शामिल हैं। इस विद्या के माध्यम से व्यक्ति भौतिक जगत की वस्तुओं और उनके कार्यों को समझता है। परा विद्या: यह उच्च या सूक्ष्म विद्या है जो आत्मा और परमात्मा के ज्ञान से संबंधित है। इस विद्या के माध्यम से व्यक्ति आत्मज्ञान प्राप्त करता है और परमात्मा के साथ एकाकार होने का प्रयास करता है। परा विद्या व्यक्ति को मोक्ष की ओर ले जाती है। |
6. भगवान श्रीकृष्ण के अनुसार मनुष्यों में आठ मुख्य गुण कौन से हैं? ॐ: भगवान श्रीकृष्ण के अनुसार मनुष्यों के आठ मुख्य गुण हैं - अपरा प्रकृति के पाँच तत्व (भूमि, जल, अग्नि, वायु, आकाश) और तीन गुण (मन, बुद्धि, अहंकार)। |
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7. भगवान के आठ मुख्य गुण कौन से हैं? ॐ: भगवान श्रीकृष्ण ने अपने आठ मुख्य गुणों को इस प्रकार बताया है:
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8. भगवान श्रीकृष्ण ने अध्याय 7 में अपनी दिव्य महिमा का वर्णन कैसे किया है? ॐ: भगवान श्रीकृष्ण ने बताया कि वे सभी जीवों के हृदय में स्थित हैं, और समस्त जीवों को जीवन, ज्ञान, और स्मृति प्रदान करते हैं। |
9. गीता के 7वें अध्याय का मूल उपदेश क्या है? ॐ: गीता के 7वें अध्याय का मूल उपदेश यह है कि भगवान को पूर्ण रूप से जानने और समझने के लिए ज्ञान और विज्ञान दोनों की आवश्यकता होती है। इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण बताते हैं कि वे कैसे संपूर्ण सृष्टि में व्याप्त हैं और कैसे वे ही सभी चीजों का स्रोत हैं। इसके अलावा, भगवान यह भी बताते हैं कि किसी भी व्यक्ति को उनके दिव्य स्वरूप को समझने के लिए भक्ति, श्रद्धा और ज्ञान की आवश्यकता होती है। |
10 भगवान ने अपने स्वरूप को कितने प्रकार से प्रकट किया है? ॐ: भगवान ने अपने स्वरूप को दो प्रकार से प्रकट किया है - सगुण (साकार) और निर्गुण (निर्विशेष)। |
11. भगवान श्रीकृष्ण ने किस प्रकार के मनुष्य को दुर्लभ कहा है? ॐ: भगवान श्रीकृष्ण ने उस मनुष्य को दुर्लभ कहा है जो अनेक जन्मों के पश्चात परम ज्ञान प्राप्त करता है और यह जानता है कि 'वासुदेव सर्वम्' है। |
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12. माया के प्रभाव से मुक्त कैसे हुआ जा सकता है? ॐ: माया के प्रभाव से मुक्त होने के लिए भगवान श्रीकृष्ण की शरण में जाना चाहिए और उनकी भक्ति करनी चाहिए। |
13. भगवान ने अर्जुन को किस प्रकार के भक्त की सराहना की है? ॐ: भगवान ने उस भक्त की सराहना की है जो अनन्य भक्ति के साथ भगवान की उपासना करता है। |
14. अध्याय 7 में भगवान श्रीकृष्ण ने कौन सी शरणागति का वर्णन किया है? ॐ: भगवान श्रीकृष्ण ने 'सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज' शरणागति का वर्णन किया है, जिसका अर्थ है कि सभी धर्मों का त्याग कर केवल मेरी शरण में आओ। |
15 भगवान ने किस प्रकार के ज्ञान को सर्वश्रेष्ठ बताया है? ॐ: भगवान ने उस ज्ञान को सर्वश्रेष्ठ बताया है जिससे परम सत्य का बोध होता है और इस संसार में समस्त प्रकार की मोह-माया से मुक्ति मिलती है। |
16. अर्जुन ने भगवान से किस प्रकार का ज्ञान माँगा था? ॐ: अर्जुन ने भगवान से आत्मा, परमात्मा, माया, और भक्ति के बारे में स्पष्ट ज्ञान माँगा था। |
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17. अध्याय 7 में भगवान ने किस प्रकार के लोगों को नास्तिक बताया है? ॐ: भगवान ने उन लोगों को नास्तिक बताया है जो माया के प्रभाव में फँसे हुए हैं और परम सत्य को नहीं पहचानते। |
18. भगवान श्रीकृष्ण ने भगवत गीता के सातवें अध्याय में अर्जुन को कौन सी उपदेश दी है? ॐ: भगवान श्रीकृष्ण ने भगवत गीता के सातवें अध्याय में अर्जुन को भक्ति योग अपनाने, माया के प्रभाव से मुक्त होने, और परम सत्य का ज्ञान प्राप्त करने का उपदेश दिया है। |
19. गीता के 7वें अध्याय का प्रसिद्ध मंत्र क्या है तथा उसका सार क्याभगवान है? ॐ: गीता के 7वें अध्याय का प्रसिद्ध मंत्र व श्लोक इस प्रकार है: "दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया। मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते॥" (श्लोक 7.14) इस श्लोक का सार है: मेरी यह दैवी माया (प्रकृति) तीन गुणों से युक्त है और इसे पार करना अत्यंत कठिन है। केवल वे ही व्यक्ति इस माया को पार कर सकते हैं जो अनन्य भक्ति से मेरी शरण में आते हैं। |
20 गीता में कौन से कर्म श्रेष्ठ है? ॐ: भगवद गीता में श्रेष्ठ कर्म वे माने गए हैं जो निष्काम भाव से, अर्थात फल की इच्छा किए बिना किए जाते हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को यह समझाया कि व्यक्ति को अपने सभी कर्तव्यों का पालन धर्मपूर्वक करना चाहिए और अपने कर्मों के फल की चिंता भगवान पर छोड़ देनी चाहिए। ऐसा कर्म ही सर्वोच्च और श्रेष्ठ माना जाता है। |
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