Shrimad Bhagwat Gita 9: राजविद्या राजगुह्य योग एक परम गुप्त ज्ञान की महिमा! Shrimad Bhagwat Geeta Rajvidhya Rajguhyam Yog
Shrimad Bhagwat Geeta Rajvidhya Rajguhyam Yog | भगवत गीता अध्याय 9 राजविद्या राजगुह्य योग
What is Rajvidhya Rajguhyam Yoga | राजविद्या राजगुह्य योग क्या है?
Most Important Message of Rajvidhya Rajguhyam Yog| राजविद्या राजगुह्ययोग के 5 महत्वपूर्ण संदेश
1. सर्वोच्च ज्ञान का सार: प्रारंभिक श्लोकों में, भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को यह बताते हुए इस राजविद्या का परिचय देते हैं कि वे उसे सबसे गूढ़ और गोपनीय ज्ञान देने जा रहे हैं। यह ज्ञान केवल बौद्धिक नहीं है, बल्कि अनुभवात्मक है, जिससे व्यक्ति को दिव्य का सीधा अनुभव होता है। कृष्ण बताते हैं कि यह राजकीय ज्ञान सभी वैदिक ज्ञान का सार है। यह पवित्र, शाश्वत है और मुक्ति की ओर ले जाता है। सांसारिक ज्ञान के विपरीत, जो समय और स्थान के अधीन है, राजविद्या इन सीमाओं से परे है और आत्मा और ब्रह्मांड के शाश्वत स्वरूप को प्रकट करता है। |
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2. राजविद्या राजगुह्ययोग दिव्य का सर्वव्यापकता: इस अध्याय की एक केंद्रीय शिक्षा सर्वोच्च सत्ता की सर्वव्यापकता है। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि वे सभी प्राणियों के भीतर विद्यमान हैं और सम्पूर्ण सृष्टि का स्रोत हैं। ब्रह्मांड की सबसे छोटी कण से लेकर विशाल ब्रह्मांड तक, सब कुछ उनकी दिव्य ऊर्जा का प्रकटन है। श्रीकृष्ण की सर्वव्यापकता केवल भौतिक संसार तक ही सीमित नहीं है, बल्कि यह आध्यात्मिक क्षेत्र तक भी विस्तारित होती है। वे अंतिम सत्य हैं, जो बदलते हुए संसार के पीछे का अपरिवर्तनीय सत्य है। इस दिव्य उपस्थिति को समझना, आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने की सबस सरल कुंजी है। |
3. माया का भ्रम: इस अध्याय में, श्रीकृष्ण बताते हैं कि भौतिक संसार माया द्वारा निर्मित एक भ्रम है, जो आत्माओं को अज्ञानता में फंसाता है। माया सुख-दुःख, सफलता-विफलता, और जन्म-मृत्यु की द्वैतताओं के लिए जिम्मेदार है। माया से पार पाने के लिए, व्यक्ति को इससे उत्पन्न शारीरिक और मानसिक सीमाओं से ऊपर उठना होगा। यह भक्ति के माध्यम से और सर्वोच्च सत्ता के गहरे ज्ञान को आत्मसात करने से प्राप्त किया जा सकता है। संसार की इस भ्रामक प्रकृति को पहचान कर, व्यक्ति भौतिक इच्छाओं से दूर हो सकता है और आध्यात्मिक विकास पर ध्यान केंद्रित कर सकता है। |
4. भक्ति का मार्ग: इस अध्याय में भक्ति योग, या भक्ति के मार्ग के महत्व पर जोर दिया गया है, जिसे राजविद्या प्राप्त करने का सबसे सरल और प्रभावी तरीका माना गया है। अन्य मार्गों के विपरीत, जो कठोर अनुशासन और त्याग की आवश्यकता रखते हैं, भक्ति योग प्रेम, समर्पण और ईश्वर के प्रति भक्ति पर आधारित है।श्रीकृष्ण अर्जुन को आश्वासन देते हैं कि जो लोग शुद्ध भक्ति के साथ, स्वार्थहीन इच्छाओं से मुक्त होकर, उनकी पूजा करते हैं, उन्हें सर्वोच्च ज्ञान प्राप्त होता है और वे पुनर्जन्म के चक्र से मुक्त हो जाते हैं। भक्ति केवल कर्मकांडों या औपचारिक उपासना तक सीमित नहीं है, बल्कि यह एक गहरी और व्यक्तिगत ईश्वर से जुड़ाव है। |
5. दिव्य कृपा का आश्वासन: राजविद्या राजगुह्ययोग के अंतिम श्लोकों में, श्रीकृष्ण अपने सभी भक्तों के लिए एक आश्वस्त संदेश देते हैं। वे वादा करते हैं कि जो लोग प्रेम और भक्ति के साथ उनके प्रति समर्पित होते हैं, वे उनकी रक्षा करते हैं। वे उनकी आध्यात्मिक और भौतिक आवश्यकताओं का ध्यान रखते हैं, उन्हें मुक्ति के मार्ग पर ले जाते हैं। भगवान श्रीकृष्ण की दिव्य कृपा का आश्वासन सर्वोच्च सत्ता की करुणामय और प्रेमपूर्ण प्रकृति को उजागर करता है। यह विचार को मजबूत करता है कि आध्यात्मिक उन्नति केवल व्यक्तिगत प्रयास का परिणाम नहीं है, बल्कि इसमें दिव्य हस्तक्षेप और कृपा की भी भूमिका होती है। |
Shrimad Bhagwat Geeta Rajvidhya Rajguhyam Yog - All 34 Shlokas | भगवत गीता अध्याय ९ राजविद्या राजगुह्ययोग के संपूर्ण श्लोक
Shrimad Bhagwat Geeta Rajvidhya Rajguhyam Yog Shlok 1-10 | भगवत गीता अध्याय ९ श्लोक १-१०
इस योग में श्रीकृष्ण ने यह भी बताया कि किस प्रकार यह ज्ञान बिना किसी भेदभाव के सभी को प्रदान किया जाता है, लेकिन इसे केवल वही लोग प्राप्त कर सकते हैं जिनका हृदय शुद्ध और निष्कपट है। यह ज्ञान न केवल ज्ञानी ब्राह्मणों के लिए है बल्कि उन सामान्य जनों के लिए भी है जो सच्चे हृदय से भगवान की शरण में आते हैं। आइए फिर अब हम भगवत गीता के 9वें अध्याय के ज्ञानवर्धक राजविद्या राजगुह्य योग के संदेशों का सार को समझने का महत्वपूर्ण अवसर प्राप्त कर अपने जीवन को सफल बनायें।
श्रीभगवानुवाच :- इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे । ज्ञानं विज्ञानसहितं यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् ॥१॥ |
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भगवत गीता अध्याय 9 हिंदी संस्करण:- श्रीभगवान बोले - हे अर्जुन! क्योंकि तुम मुझसे कभी ईर्ष्या नहीं करते हो। इसलिए मैं तुम्हें यह परम गोपनीय ज्ञान व राजविद्या राजगुह्यं योग तथा उसकी अनुभूति बतलाऊंगा, जिसे जानकर तुम संसार के सभी प्रकार के क्लेशों, कष्टों व दुःख तथा दुविधाओं से मुक्त हो जाओगे। भावार्थ: भगवान श्रीकृष्ण यहां अर्जुन को इस समस्त संसार का सबसे बड़ा तथा सबसे गोपनीय रहस्य व ज्ञान को विज्ञान सहित अर्थात् उसकी विशेषता के साथ बताने जा रहे हैं। जिस राजविद्या राजगुह्यं योग अर्थात् इस समस्त ब्रह्माण्ड के सबसे बड़े तथा अत्यंत गुप्त ज्ञान को ग्रहण करने तथा अपने जीवन में अम्ल में लाने से किसी भी जीव व मनुष्य के लिए इस भौतिक जगत के सारे दुःख, कष्ट तथा मोह-माया सदा के लिए मुक्त हो जाते हैं। (प्रथम श्लोक) |
राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम् । प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम् ॥२॥ |
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भगवत गीता अध्याय 9 हिंदी संस्करण:- यह ज्ञान समस्त गोपनीय विद्याओं का राजा है, जो समस्त रहस्यों में सर्वाधिक गोपनीय रहस्य व गोपनीय ज्ञान है। यह परम पवित्र है और चूंकि यह आत्मा की प्रत्यक्ष अनुभूति कराने वाला है, अतः यह धर्म का सिध्दांत है। यह अविनाशी है, जो इस परम गुप्त ज्ञान को समझ गया वह अपने जीवन को सुखमय तथा सम्पन्न बना सकता है। (द्वितीय श्लोक) |
अश्रद्दधाना: पुरुषा धर्मस्यास्य परन्तप । अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवर्त्मनि ॥३॥ |
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भगवत गीता अध्याय 9 हिंदी संस्करण:- हे परन्तप अर्जुन! जो लोग भक्ति में श्रद्धा नहीं रखते, वे लोग मुझे कभी प्राप्त नहीं कर पाते। जिस कारण वे इस भौतिक संसार में जन्म-मरण के मार्ग पर वापस आते रहते हैं। (तृतीय श्लोक) |
मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना । मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्ववस्थित: ॥४॥ |
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भगवत गीता अध्याय 9 हिंदी संस्करण:- यह समस्त संसार मेरे ही अव्यक्त रूप द्वारा व्यक्त है। समस्त जीव मुझमें हैं, किन्तु मैं उनमें नहीं हूं। (चतुर्थ श्लोक) |
न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम् । भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावन: ॥५॥ |
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भगवत गीता अध्याय 9 हिंदी संस्करण:- तथपि मेरे द्वारा उत्पन्न सारी वस्तुएं मुझमें स्थित नहीं रहतीं। जरा, मेरे योग- ऐश्वर्य को देखो! यद्यपि मैं ही समस्त जीवों का पालनकर्ता हूं और सर्वत्र में व्याप्त हूं, लेकिन मैं इस विराट अभिव्यक्ति का अंश नहीं हूं, क्योंकि मैं सृष्टि का कारणस्वरूप हूं। (पंचम श्लोक) |
यथाकाशस्थितो नित्यं वायु: सर्वत्रगो महान् । तथा सर्वाणि भूतानि मत्स्थानीत्युपधारय ॥६॥ |
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भगवत गीता अध्याय 9 हिंदी संस्करण:- जिस प्रकार मेरे सर्वत्र प्रवहमान (हर जगह चलते व बहते रहने वाली) वायु सदैव आकाश में स्थित रहती है, उसी प्रकार समस्त उत्पन्न प्राणियों को मुझमें स्थित जानो। (षष्ठम श्लोक) |
सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं यान्ति मामिकाम् । कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम् ॥७॥ |
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भगवत गीता अध्याय 9 हिंदी संस्करण:- हे कुन्तीपुत्र अर्जुन! कल्प का अंत होने पर समस्त प्राणी मेरी प्रकृति में प्रवेश करते हैं और अन्य कल्प आरंभ होने पर मैं उन्हें अपनी शक्ति से पुनः उत्पन्न करता हूं। (सप्तम श्लोक) |
प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुनः पुनः । भूतग्राममिमं कृत्स्न्नमवशं प्रकृतेर्वशात् ॥८॥ |
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भगवत गीता अध्याय 9 हिंदी संस्करण:- ८॥ सम्पूर्ण सृष्टि यानी समस्त विराट जगत मेरे अधीन है। यह मेरी इच्छा से बारम्बार स्वत: प्रकट होता रहता है और मेरी ही इच्छा से अंत में विनष्ट होता है। (अष्टम श्लोक) |
न च मां तानि कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय । उदासीनवदासीनमसक्तं तेषु कर्मसु ॥९॥ |
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भगवत गीता अध्याय 9 हिंदी संस्करण:- हे धनंजय! ये सारे कर्म मुझे नहीं बांध पाते हैं। मैं उदासीन की भांति इन सारे भौतिक कर्मों से सदैव विरक्त रहता हूं। (नवम श्लोक) |
मयाध्यक्षेण प्रकृति: सूयते सचराचरम् । हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते ॥१०॥ |
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भगवत गीता अध्याय 9 हिंदी संस्करण:- हे कुन्तीपुत्र अर्जुन! यह भौतिक प्रकृति मेरी ही शक्तियों में से एक है और मेरी अध्यक्षता (मेरे अनुसार ही) में कार्य करती है, जिससे सारे चर तथा अचर प्राणी उत्पन्न होते हैं। इसके शासन में यह समस्त दृश्य जगत बारम्बार सृजित तथा विनष्ट होता रहता है। (दशम श्लोक) |
Shrimad Bhagwat Geeta Rajvidhya Rajguhyam Yog Shlok 11-20 | भगवत गीता अध्याय ९ श्लोक ११-२०
अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम् । परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम् ॥११॥ |
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भगवत गीता अध्याय 9 हिंदी संस्करण:- जब मैं मनुष्य रूप में अवतरित होता हूं, तो मूर्ख व अज्ञानी व्यक्ति मेरा उपहास करते हैं। वे मुझ परमेश्वर के दिव्य स्वभाव को नहीं जानते। (11वें श्लोक) |
मोघाषा मोघकर्माणो मोघज्ञाना विचेतस: । राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृतिं मोहीनीं श्रिता: ॥१२॥ |
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भगवत गीता अध्याय 9 हिंदी संस्करण:- जो लोग इस प्रकार मोहग्रसत होते हैं, वे राक्षसी, आसुरी तथा नास्तिक विचारों के प्रति आकृष्ट (मोहित) रहते हैं। इस मोहग्रसत अवस्था में उनकी मुक्ति-आशा, उनके सकाम कर्म तथा ज्ञान का अनुशीलन सभी निष्फल हो जाते हैं। (12वें श्लोक) |
महानत्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिता: । भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम् ॥१३॥ |
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भगवत गीता अध्याय 9 हिंदी संस्करण:- हे पार्थ! मोहरहित महात्माजन दैवी प्रकृति के संरक्षण (शरण) में रहते हैं। वे अविचलित मन से पूर्णतः मेरी ही भक्ति में निमग्न (लगे, लीन) रहते हैं क्योंकि वे मुझे ही आदि तथा अविनाशी भगवान के रूप में देखते हैं। (13वें श्लोक) |
सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढव्रता: । नमस्यन्तश्च मां भक्त्या नित्ययुक्ता उपासते ॥१४॥ |
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भगवत गीता अध्याय 9 हिंदी संस्करण:- ये महात्मा मेरे नाम की महिमा का जाप और कीर्तन करते हुए, दृढ़संकल्प के साथ प्रयास करते हुए, मुझे नमस्कार करते हुए, भक्तिभाव से निरंतर मेरी ही पूजा करते हैं। (14वें श्लोक) |
ज्ञानयज्ञेन चाप्यन्ये यजन्तो मामुपासते । एकत्वेन पृथक्त्वेन बहुधा विश्वतोमुखम् ॥१५॥ |
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भगवत गीता अध्याय 9 हिंदी संस्करण:- अन्य लोग जो ज्ञान के अनुशीलन द्वारा यज्ञ में लगे रहते हैं, वे भगवान की पूजा उनके अद्वय (दूसरे व अन्य) रूप में, विविध रूपों में तथा विश्व रूप में करते हैं। (15वें श्लोक) |
अहं क्रतुरहं यज्ञ: स्वधाहमहमौषधम् । मन्त्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हुतम् ॥१६॥ |
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भगवत गीता अध्याय 9 हिंदी संस्करण:- किन्तु मैं ही वैदिक अनुष्ठान व कर्मकाण्ड, मैं ही यज्ञ, मैं ही पितरों को दिया जलाने वाला तर्पण, मैं ही औषधि, मैं ही दिव्य ध्वनि (मंत्र), मैं ही घी, मैं ही अग्नि तथा आहुति भी मैं ही हूं। (16वें श्लोक) |
पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामह: । वेद्यं पवित्रम् ॐकार ऋक् साम यजुरेव च ॥१७॥ |
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भगवत गीता अध्याय 9 हिंदी संस्करण:- मैं ही इस समस्त ब्रह्माण्ड का पिता, माता, आश्रय तथा पितामह हूं। मैं ही ज्ञेय (जानने योग्य), मैं ही शुद्धिकर्ता तथा मैं ही ओंकार (ॐकार व ॐ) हूं। मैं ऋग्वेद, सामवेद तथा यजुर्वेद भी हूं। (17वें श्लोक) |
गतिर्भर्ता प्रभु: साक्षी निवास: शरणं सुहृत् । प्रभव: प्रलय: स्थानं निधानं बीजमव्ययम् ॥१८॥ |
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भगवत गीता अध्याय 9 हिंदी संस्करण:- मैं ही लक्ष्य, पालनकर्ता, भगवान, साक्षी, धाम, शरणस्थली तथा अत्यंत प्रिय मित्र हूं। मैं ही सृष्टि तथा प्रलय हूं, सबका आधार, सबका आश्रय तथा सबका अविनाशी बीज भी मैं ही हूं। (18वें श्लोक) |
तपाम्यहमहं वर्षं निगृह्णम्युत्सृजामि च । अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन ॥१९॥ |
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भगवत गीता अध्याय 9 हिंदी संस्करण:- हे अर्जुन! मैं ही ताप (गर्मी) प्रदान करता हूं और वर्षा को मैं ही रोकता तथा लाता हूं। मैं अमरत्व हूं और साक्षात् मृत्यु भी हूं। आत्मा तथा पदार्थ (सत् तथा असत्) दोनों मुझमें ही हैं। (19वें श्लोक) |
त्रैविद्या मां सोमपा: पूतपापा यज्ञैरिष्ट्वा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते। ते पुण्यमासाद्य सुरैन्द्रलोक-मश्नन्ति दिव्यान्दिवि देवभोगान् ॥२०॥ |
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भगवत गीता अध्याय 9 हिंदी संस्करण:- तीनों वेदों के ज्ञाता, जो वेदों का अध्ययन करते तथा सोमरस का पान करते हैं, वे स्वर्ग की प्राप्ति की गवेषणा (अभिलाषा, कामना या इच्छा) से प्रेरित हुए अप्रत्यक्ष रूप से मेरी पूजा करते हैं। वे पापकर्मों से शुद्ध होकर, इन्द्र के पवित्र स्वर्गलोक में जन्म लेते हैं, जहां वे भी देवताओं की भांति आनन्द का भोग करते हैं। (20वें श्लोक) |
Shrimad Bhagwat Geeta Rajvidhya Rajguhyam Yog Shlok 21-30 | भगवत गीता अध्याय ९ श्लोक २१-३०
ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति । एवं त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना गतागतं कामकामा लभन्ते ॥२१॥ |
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भगवत गीता अध्याय 9 हिंदी संस्करण:- इस प्रकार जब वे (उपासक) विस्तृत स्वर्गिक इन्द्रियसुखों (स्वर्ग लोक के समस्त सुखों) को भोग लेते हैं और उनके पुण्यकर्मों के फल क्षीण व समाप्त हो जाते हैं तो वे इस मृत्युलोक में पुनः लौट आते हैं। इस प्रकार जो तीनों वेदों के सिद्धांतों में दृढ़ रहकर इन्द्रियसुख की गवेषणा (कामना) करते हैं, उन्हें जन्म-मरण का चक्र ही मिल पाता है।(21वें श्लोक) |
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जना: पर्युपासते । तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ॥२२॥ |
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भगवत गीता अध्याय 9 हिंदी संस्करण:- किन्तु जो लोग अनन्यभाव से मेरे दिव्यस्वरूप का ध्यान करते हुए निरंतर मेरी पूजा करते हैं, उनकी जो भी आवश्यकताएं होती हैं, उन्हें मैं पूरा करता हूं और जो कुछ उनके पास है, उसकी रक्षा मैं करता हूं। (22वें श्लोक) |
येऽप्यन्यदेवताभक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विता: । तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम् ॥२३॥ |
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भगवत गीता अध्याय 9 हिंदी संस्करण:- हे अर्जुन! जो लोग अन्य देवताओं के भक्त हैं और उनकी (अपने-अपने ईष्ट या देवी तथा देवता) की श्रद्धापूर्वक पूजा करते हैं, वास्तव में वे लोग मेरी ही पूजा करते हैं, किन्तु वे यह त्रुटिपूर्ण ढंग या अज्ञानता के कारण से करते हैं। (23वें श्लोक) |
अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च । न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्च्यवन्ति ते ॥२४॥ |
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भगवत गीता अध्याय 9 हिंदी संस्करण:- मैं ही समस्त यज्ञों का एकमात्र भोक्ता (भोग करने वाला) तथा सबका स्वामी हूं। अतः जो लोग मेरे वास्तविक दिव्य स्वभाव को नहीं पहचान पाते, वे नीचे गिर जाते हैं। (24वें श्लोक) |
यान्ति देवव्रता देवान्पितृन्यान्ति पितृव्रता: । भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम् ॥२५॥ |
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भगवत गीता अध्याय 9 हिंदी संस्करण:- जो देवताओं की पूजा करते हैं, वे देवताओं के बीच जन्म लेते हैं। जो पितरों को पूजते हैं, वे पितरों के पास जाते हैं और जो भूत-प्रेतों की उपासना करते हैं, वे उन्हीं के बीच में जन्म लेते हैं। लेकिन जो मेरी पूजा करते हैं वे मेरे पास (कृष्णलोक अर्थात् वैकुंठ धाम) आते हैं। (25वें श्लोक) |
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति । तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मान: ॥२६॥ |
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भगवत गीता अध्याय 9 हिंदी संस्करण:- यदि कोई मुझको प्रेम तथा भक्ति के साथ पुष्प, पत्र, फल या जल अर्पित करता है, तो मैं उसे स्वीकार करता हूं। (26वें श्लोक) |
यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत् । यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम् ॥२७॥ |
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भगवत गीता अध्याय 9 हिंदी संस्करण:- हे कुन्तीपुत्र अर्जुन! तुम जो कुछ भी करते हो, जो कुछ खाते हो, जो कुछ अर्पित करते हो या दान देते हो और जो भी तपस्या करते हो, उसे मुझे ही अर्पित करते हुए करो।(27वें श्लोक) |
शुभाशुभमफलैरेवं भोक्ष्यसे कर्मबन्धैन: । सन्न्यासयोगयुक्तात्मा विमुक्तो मामुपैष्यसि ॥२८॥ |
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भगवत गीता अध्याय 9 हिंदी संस्करण:- इस तरह से तुम कर्मबन्धन तथा इसके शुभ-अशुभ के सारे कर्मफलों से मुक्त हो सकोगे। इस संन्यास योग में अपने चित्त को स्थिर करके तुम मुक्त होकर मेरे पास आ सकोगे। (28वें श्लोक) |
समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रिय: । ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम् ॥२९॥ |
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भगवत गीता अध्याय 9 हिंदी संस्करण:- मैं न तो किसी से द्वेष करता हूं और न ही किसी के साथ पक्षपात करता हूं। मैं सभी जीवों व मनुष्यों के लिए समभाव रखता हूं। किन्तु जो भी भक्तिपूर्वक मेरी सेवा करता है, वह मेरा मित्र है, वह मुझमें स्थित रहता है और मैं उसमें स्थित रहता हूं। (29वें श्लोक) |
अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक् । साधुरेव स मन्तव्य: सम्यग्व्यवसितो हि से: ॥३०॥ |
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भगवत गीता अध्याय 9 हिंदी संस्करण:- यदि कोई दुराचारी व्यक्ति जघन्य से जघन्य कर्म करता है, किन्तु यदि वह विचलित हुए बिना मेरी ही भक्ति में लीन रहता है तो उसे साधु पुरुष के योग्य मानना चाहिए, क्योंकि वह अपने संकल्प में अडिग रहता है। यहां पर भगवान श्रीकृष्ण ने यह नहीं कहा है कि आप जान-बूझकर दुष्कर्म करें और भगवान की भक्ति करके अपने पाप कर्मों से बच सकते हैं, यहां पर भगवान श्रीकृष्ण के ऐसा कहने का तात्पर्य यह है कि अगर आपने पूर्व व इससे पहले कोई गलत काम या बहुत ही जघन्य से जघन्य पाप कर्म किए हुए होंगे, तो भी आप भगवान की शरण में जाकर अपने पापकर्मों के लिए क्षमा प्रार्थी बन कर तथा भगवान भक्ति एवं सेवा में लगकर अपने कर्मफलों से मुक्त हो सकते हैं या अपने कर्मफलों को कम कर सकते हैं।) (30वें श्लोक) |
Shrimad Bhagwat Geeta Rajvidhya Rajguhyam Yog Shlok 31-34 | भगवत गीता अध्याय... श्लोक ३१-३४
क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्ति निगच्छति । कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्त: प्रणश्यति ॥३१॥ |
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भगवत गीता अध्याय 9 हिंदी संस्करण:- वह शीघ्र ही धर्मात्मा बन जाता है और स्थायी शान्ति को प्राप्त होता है। हे कुन्तीपुत्र अर्जुन! तुम निडर होकर यह घोषणा कर दो कि मेरे (भगवान श्रीकृष्ण के) भक्त का कभी विनाश नहीं होता। (31वें श्लोक) |
मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्यु: पापयोनय: । स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम् ॥३२॥ |
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भगवत गीता अध्याय 9 हिंदी संस्करण:- हे पार्थ! जो लोग मेरी शरण ग्रहण करते हैं, वे भले ही निम्नजन्मा (निम्नकुल में जन्मे), स्त्रियां, वैश्य (व्यापारी) तथा शूद्र (श्रमिक) क्यों न हों, वे सब मेरे परमधाम को प्राप्त करते हैं। (32वें श्लोक) |
किं पुनर्ब्राह्मणा: पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा । अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम् ॥३३॥ |
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भगवत गीता अध्याय 9 हिंदी संस्करण:- फिर धर्मात्मा ब्राह्मणों, भक्तों तथा राजर्षियों के लिए तो कहना ही क्या है! अतः इस क्षणिक दुःखमय संसार में आ जाने पर मेरी ही प्रेमाभक्ति में अपने आपको लगाओ। (33वें श्लोक) |
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु । मामेवैष्यसि युक्त्वैमात्मानं मत्परायण: ॥३४॥ |
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भगवत गीता अध्याय 9 हिंदी संस्करण:- अपने मन को मेरे नित्य (परमपिता परब्रह्म परमेश्वर के) चिंतन में लगाओ, मेरे भक्त बनो, मुझे नमस्कार करो और मेरी ही पूजा करो। इस प्रकार से मुझमें पूर्णतया लीन होने पर तुम निश्चित रूप से मुझको प्राप्त करोगे। (34वें श्लोक) |
इस अध्याय के अंत में, भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को स्पष्ट रूप से बताते हैं कि यह योग सभी पापों को समाप्त करने में सक्षम है। वे कहते हैं कि जो भी इस ज्ञान को भक्ति के साथ स्वीकार करता है, वह निश्चित रूप से भगवान की कृपा प्राप्त करता है और जीवन के सभी बंधनों से मुक्त हो जाता है। अंत में श्रीकृष्ण यह भी बताते हैं कि यह योग उन्हें प्रिय है जो न केवल इस ज्ञान को आत्मसात करते हैं बल्कि इसे दूसरों तक भी पहुंचाते हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा कि इस योग का प्रचार-प्रसार करना सबसे बड़ा धर्म है और जो भी व्यक्ति इसे दूसरों को सिखाता है, वह भगवान के परम भक्तों में गिना जाएगा। इस तरह, यह अध्याय भगवान के दिव्य ज्ञान और उसकी महिमा का संपूर्ण वर्णन करता है, जिसे समझने और अपनाने से जीवन में परम शांति और मोक्ष की प्राप्ति होती है। इस प्रकार, से भगवत गीता का यह अध्याय "राजविद्या राजगुह्यं योग" समाप्त हुआ, जो एक अद्वितीय और गोपनीय ज्ञान का भंडार है, जो भगवान की कृपा से प्राप्त होता है और व्यक्ति को आध्यात्मिक पथ पर अग्रसर करता है।
5 Most Important Life Changing Lessons of Rajvidhya Rajguhyam Yog | राजविद्या राजगुह्य जीवन परिवर्तक 5 महत्वपूर्ण शिक्षाएं
1. परमात्मा का वास्तविक स्वरूप: राजविद्या राजगुह्ययोग में, भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को परमात्मा के सच्चे स्वरूप का ज्ञान देते हैं। वे बताते हैं कि परमात्मा (परमात्मा) सर्वव्यापी है, प्रत्येक वस्तु में विद्यमान है और सब कुछ को पार करता है। कृष्ण कहते हैं, "मैं सभी प्राणियों का सार हूं। मैं सृजनकर्ता, पालनकर्ता और संहारक हूं। मैं सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त हूं।" यह शिक्षा हमें अपने चारों ओर के हर व्यक्ति और वस्तु में दिव्यता को देखने के लिए प्रेरित करती है। जब हम सभी जीवन के आपसी संबंध को समझते हैं, तो यह एकता, करुणा और प्रेम की भावना को बढ़ावा देता है। इस सत्य को अपनाकर, हम अहंकार-चालित व्यवहारों को छोड़ सकते हैं और अपने जीवन में शांति और उद्देश्य की गहरी भावना विकसित कर सकते हैं। |
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2. श्रद्धा और भक्ति से मोक्ष की प्राप्ति: भगवान श्रीकृष्ण भक्ति (भक्ति) या समर्पण की शक्ति को समझाते हैं,और इस बात पर जोर देते हुए अर्जुन से कहते हैं कि जो लोग प्रेम और श्रद्धा (श्रद्धा) के साथ उनकी पूजा करते हैं, वे मोक्ष (मोक्ष) की ओर अग्रसर होते हैं। वे अर्जुन को आश्वस्त करते हैं कि यहां तक कि जो लोग पापी हैं, यदि वे सच्चे समर्पण के साथ उनकी शरण में आते हैं, तो वे मुक्ति प्राप्त करेंगे। यह शिक्षा हमें हमारे आध्यात्मिक मार्ग में श्रद्धा और भक्ति के महत्व का पाठ देती है। चाहे हम कितने भी खोए हुए या बोझिल क्यों न महसूस करें, शुद्ध हृदय से दिव्यता की ओर मुड़ने से हमें दुःख और अज्ञानता से मुक्ति मिल सकती है। यह हमें याद दिलाता है कि दिव्य कृपा उन सभी के लिए उपलब्ध है जो इसे विनम्रता और ईमानदारी के साथ खोजते हैं। |
3. कर्तव्य का पालन बिना आसक्ति के (निष्काम कर्म) : भगवत गीता का एक केंद्रीय विषय निष्काम कर्म (निष्काम कर्म) का सिद्धांत है, जिसका अर्थ है कि अपने कर्तव्य का पालन बिना परिणामों के आसक्ति के करना। अध्याय 9 में,भगवान श्रीकृष्ण इस विचार को दोहराते हुए अर्जुन को सलाह देते हैं कि वे अपने कर्तव्यों का पालन भक्ति के एक कार्य के रूप में करें, बिना परिणामों के प्रति आसक्त हुए। आज की तेज़-रफ़्तार, परिणाम-उन्मुख दुनिया में यह सबक विशेष रूप से प्रासंगिक है। यह हमें सिखाता है कि जबकि हमें अपने काम में सर्वश्रेष्ठ प्रयास करना चाहिए, हमें सफलता या असफलता के प्रति अधिक चिंतित नहीं होना चाहिए। अपने कार्यों के फलों से खुद को अलग करके, हम आंतरिक शांति बनाए रख सकते हैं और वर्तमान क्षण पर ध्यान केंद्रित कर सकते हैं, बिना चिंता और तनाव के। |
4. सभी जीवों के प्रति समान दृष्टि: भगवान श्रीकृष्ण गीता के अध्याय 9 "राजविद्या राजगुह्ययोग" में घोषणा करते हैं कि वे किसी भी जीव के बीच कोई भेदभाव नहीं करते। वे सभी में समान रूप से विद्यमान हैं, चाहे वे ज्ञानी हों या अज्ञानी, धनी हों या गरीब। समान दृष्टि (समान दृष्टि) का यह सिद्धांत एक गहन पाठ है जो सभी जीवों को समान करुणा और सम्मान के साथ देखने की बात करता है। हमारे दैनिक जीवन में, यह शिक्षा हमें पूर्वाग्रह और भेदभाव की दीवारों को तोड़ने में मदद कर सकती है। प्रत्येक व्यक्ति में अंतर्निहित दिव्यता को पहचानकर, हम एक अधिक समावेशी और सामंजस्यपूर्ण समाज का निर्माण कर सकते हैं। यह सिद्धांत हमें याद दिलाता है कि सच्ची आध्यात्मिकता सामाजिक स्थिति, लिंग, जाति या किसी अन्य विभाजन से परे है, और प्रत्येक प्राणी सम्मान और प्रेम का हकदार है। |
5. समर्पण और स्वीकार्यता: यह अध्याय 9 की सबसे गहन शिक्षाओं में से एक है समर्पण (समर्पण) की शक्ति। कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि जो लोग पूर्ण रूप से ईश्वर को समर्पित कर देते हैं, उन्हें सदैव सुरक्षा प्राप्त होती है और वे अनन्त शांति प्राप्त करते हैं। वे कहते हैं, "जो लोग मेरी शरण में आते हैं, चाहे वे निम्न जाति के हों, महिलाएं हों, व्यापारी हों या श्रमिक, वे सभी सर्वोच्च लक्ष्य प्राप्त करते हैं।"यह शिक्षा हमारे अहंकार, इच्छाओं और भय को ईश्वर को समर्पित करने के महत्व पर प्रकाश डालती है। यह इस बात पर विश्वास करने के बारे में है कि ब्रह्मांड हमारी देखभाल कर रहा है, चाहे चीजें कितनी भी कठिन या अनिश्चित क्यों न लगें। जीवन को जैसा है वैसा स्वीकार करना, और एक उच्च शक्ति में विश्वास के साथ, अत्यधिक शांति और संतोष ला सकता है। यह समर्पण निष्क्रियता का संकेत नहीं है, बल्कि जीवन के साथ सक्रिय रूप से संलग्न होना है, दिव्य योजना पर भरोसा करना है। |
5 Beneficial Knowledge of Rajvidhya Rajguhyam Yog | राजविद्या राजगुह्य योग की 5 लाभदायक ज्ञानवर्धक बातें
1. सर्वश्रेष्ठ ज्ञान की समझ : "राजविद्या राजगुह्ययोग" का अर्थ है "राजकीय ज्ञान और राजकीय रहस्य का योग।" इस अध्याय में सर्वश्रेष्ठ ज्ञान को समझने के महत्व पर जोर दिया गया है, जो सामान्य ज्ञान से परे होता है। इस राजकीय ज्ञान को अपनाकर, व्यक्ति अपनी असली प्रकृति और जीवन के उद्देश्य को स्पष्टता से समझ सकता है। लाभ: इस गहरे ज्ञान को प्राप्त करने से आप समझदारी भरे निर्णय लेने में सक्षम हो जाते हैं, जो व्यक्तिगत और पेशेवर सफलता की ओर ले जाते हैं। जब आप अपनी क्रियाओं को इस सर्वोच्च ज्ञान के साथ संरेखित करते हैं, तो आप जीवन की चुनौतियों का सामना अधिक बुद्धिमानी और आत्मविश्वास के साथ कर सकते हैं। |
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2. भक्ति की शक्ति : अध्याय 9 की एक प्रमुख शिक्षा "भक्ति" या भक्ति के महत्व को लेकर है। गीता यह बताती है कि ईश्वर के प्रति अडिग भक्ति से आध्यात्मिक उन्नति और संतोष प्राप्त होता है। जब आप अपनी क्रियाओं को एक उच्च उद्देश्य के प्रति समर्पित करते हैं, तो आप एक शांति और संतोष का अनुभव करते हैं। लाभ: भक्ति आंतरिक शक्ति और सहनशीलता लाती है। व्यावहारिक दृष्टिकोण से, इसका मतलब है कि यह आपकी एकाग्रता और संकल्प को बेहतर बनाता है, जो कि आपके करियर और व्यक्तिगत लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए महत्वपूर्ण है। यह एक सकारात्मक मानसिकता को प्रोत्साहित करता है, जो बाधाओं को पार करने और सफलता प्राप्त करने में सहायक होती है। |
3. कर्म का नियम: गीता के उपदेशों में "कर्म" या क्रिया का सिद्धांत महत्वपूर्ण है। अध्याय 9 में यह स्पष्ट किया गया है कि प्रत्येक क्रिया के परिणाम होते हैं, और किसी के जीवन को उनकी क्रियाओं की प्रकृति द्वारा आकारित किया जाता है। इस नियम को समझने से आपको धर्मपरायण क्रियाएँ करने और हानिकारक क्रियाओं से बचने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। लाभ: कर्म के नियम को अपनाने से आप एक अधिक अनुशासित और नैतिक जीवन जीने लगते हैं। इसका मतलब है कि आप ऐसे निर्णय लेते हैं जो न केवल आपके लिए बल्कि दूसरों के लिए भी लाभकारी हों, और इससे व्यक्तिगत और पेशेवर क्षेत्रों में सकारात्मक प्रभाव का उत्थान होता है। |
4. निःस्वार्थ सेवा: "सेवा" या निःस्वार्थ सेवा इस अध्याय की एक और महत्वपूर्ण शिक्षा है। गीता का कहना है कि दूसरों की निःस्वार्थ सेवा, बिना किसी अपेक्षा के, दिल को शुद्ध करती है और आध्यात्मिक मुक्ति की ओर ले जाती है। यह निःस्वार्थ दृष्टिकोण ईश्वरीय कृपा प्राप्त करने का एक मार्ग माना जाता है। लाभ: निःस्वार्थ सेवा का अभ्यास अंतर वैयक्तिक संबंधों को बेहतर बनाता है और विश्वास और सम्मान को बढ़ाता है। पेशेवर संदर्भ में, यह टीमवर्क और सहयोग को बेहतर बनाता है, जिससे एक अधिक सामंजस्यपूर्ण और उत्पादक कार्य वातावरण बनता है। |
5. जीवन का अंतिम लक्ष्य: गीता के अध्याय 9 में जीवन के अंतिम लक्ष्य को अपनी दिव्य प्रकृति की पहचान और मुक्ति (मुक्ति) प्राप्त करने के रूप में वर्णित किया गया है। इस पहचान को प्राप्त करने के लिए व्यक्ति को अपनी सच्ची स्वभाव और ईश्वर के साथ संबंध को समझना होता है। इस अंतिम लक्ष्य की खोज जीवन को एक उद्देश्य और दिशा प्रदान करती है। लाभ: अपने जीवन के अंतिम लक्ष्य को स्पष्ट रूप से समझने से आपकी क्रियाएँ आपके मूल्यों के साथ मेल खाती हैं। यह संरेखण आपकी व्यक्तिगत उपलब्धियों और समाज में सारगर्भित योगदान में गहरी संतोषजनकता को उत्पन्न करता है। |
Conclusion of Bhagwat Geeta Chapter 9 |भगवत गीता राजविद्या राजगुह्य योग का सार
FAQs: Bhagwat Geeta Chapter 9 Rajvidhya Rajguhyam Yog | श्रीमद् भागवत गीता प्रश्नोत्तरी - राजविद्या राजगुह्य योग
1. भगवद गीता में "राजविद्या राजगुह्यम योग" का क्या महत्व है? ॐ: राजविद्या राजगुह्य (राजविद्या राजगुह्यम) का अर्थ है "ज्ञान का राजा और रहस्य का राजा।" यह अध्याय, जिसे "योग का राजसी विज्ञान और राजसी रहस्य" कहा जाता है, महत्वपूर्ण है क्योंकि यह वास्तविकता, ईश्वर, और आत्मा के स्वभाव के बारे में सबसे गहरे सत्य को उजागर करता है। श्रीकृष्ण बताते हैं कि यह ज्ञान सबसे पवित्र और सबसे छुपा हुआ है, जो केवल उन्हीं के लिए सुलभ है जो वास्तव में समर्पित और ईमानदार हैं। |
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2. अध्याय 9 को "ज्ञान का राजा" क्यों कहा जाता है? ॐ: अध्याय 9 को "ज्ञान का राजा" (राजविद्या) कहा जाता है क्योंकि यह सभी आध्यात्मिक शिक्षाओं का सार प्रस्तुत करता है। यह सर्वोच्च ज्ञान है जो सभी अन्य प्रकार की समझ से परे है, और आत्मा और ब्रह्मांड के वास्तविक स्वभाव के बारे में गहरी अंतर्दृष्टि प्रदान करता है। यह अध्याय मुक्ति (मोक्ष) प्राप्त करने के लिए आवश्यक ज्ञान प्रदान करता है और इसलिए इसे आध्यात्मिक ज्ञान का शिखर माना जाता है। |
3. राजविद्या राजगुह्यम योग का मुख्य विषय क्या है? ॐ: "राजविद्या राजगुह्यम योग" का मुख्य विषय सर्वोच्च सत्ता की सर्वव्यापकता को समझना और इस दिव्य सत्य को साकार करने का मार्ग है। यह भक्ति (भक्ति) पर जोर देता है, जिसे सर्वोच्च ज्ञान और मुक्ति प्राप्त करने के साधन के रूप में बताया गया है। श्रीकृष्ण बताते हैं कि वे सभी सृष्टि के स्रोत हैं और इस ज्ञान को भक्ति के माध्यम से समझने से आध्यात्मिक पूर्णता प्राप्त होती है। |
4. गीता के अध्याय में 9 "राजगुह्यम" (राजगुह्यम) को भगवान श्रीकृष्ण "सभी रहस्यों का राजा" क्यों बताते हैं? ॐ: "राजगुह्यम" शब्द "रहस्य का राजा" का प्रतीक है क्योंकि इस अध्याय की शिक्षाएँ आसानी से समझ में नहीं आतीं। ये रहस्य साधारण अर्थों में छुपे हुए नहीं हैं, बल्कि इन्हें पूरी तरह से समझने के लिए एक शुद्ध हृदय और अटूट भक्ति की आवश्यकता होती है। इस अध्याय में चर्चा किए गए रहस्य गहरे हैं और व्यक्तिगत आत्मा (आत्मा) और सर्वोच्च सत्ता (परमात्मा) के बीच के घनिष्ठ संबंध से संबंधित हैं। इस लिए भगवान श्रीकृष्ण गीता के अध्याय 9 राजविद्या राजगुह्ययोग को सभी रहस्यों का राजा बताते हैं। |
5. अध्याय 9 में श्रीकृष्ण स्वयं को कैसे वर्णित करते हैं? ॐ: गीता के 9वें अध्याय में, श्रीकृष्ण स्वयं को सभी अस्तित्व का सर्वोच्च कारण बताते हैं। वे कहते हैं, "मैं इस संसार का पिता, माता, आधार और पितामह हूँ। मैं ज्ञान का उद्देश्य, शुद्धिकर्ता, ओमकार और वेद हूँ" (भगवद गीता 9.17)। यह श्लोक श्रीकृष्ण की भूमिका को अंतिम वास्तविकता और सभी आध्यात्मिक और भौतिक घटनाओं के सार के रूप में दर्शाता है। |
6. राजविद्या राजगुह्यम योग में भक्ति (भक्ति) की क्या भूमिका है? ॐ: राजविद्या राजगुह्यम योग की शिक्षाओं में भक्ति या भक्ति का केंद्रीय स्थान है। श्रीकृष्ण बताते हैं कि शुद्ध और अडिग भक्ति के माध्यम से व्यक्ति सर्वोच्च ज्ञान प्राप्त कर सकता है और सर्वोच्च सत्ता की दिव्य प्रकृति को समझ सकता है। वे आश्वासन देते हैं कि जो लोग विश्वास और प्रेम के साथ उनकी पूजा करते हैं, वे कभी भी खोए नहीं जाते और अंततः मुक्ति प्राप्त करते हैं। |
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7. श्रीकृष्ण उन लोगों के बारे में क्या कहते हैं जिनके पास इस ज्ञान में विश्वास नहीं है? ॐ: श्रीकृष्ण बताते हैं कि जिन लोगों को इस सर्वोच्च ज्ञान (राजविद्या) में विश्वास नहीं है, वे जन्म और मृत्यु के चक्र में फंसे रहते हैं। वे कहते हैं, "जो लोग भक्ति के मार्ग पर विश्वास नहीं करते, हे पारंतप, वे मुझे प्राप्त नहीं कर सकते। वे इस भौतिक संसार में जन्म और मृत्यु के चक्र में लौट आते हैं" (श्लोक 9.3)। यह आध्यात्मिक प्रगति में विश्वास के महत्व को उजागर करता है। |
8. अनन्याश्चिन्तयन्तो मां" (अनन्याश्चिन्तयन्तो मां) श्लोक का क्या महत्व है? ॐ: "अनन्याश्चिन्तयन्तो मां" (श्लोक 9.22) श्लोक गीता का एक प्रसिद्ध श्लोक है। इसका अनुवाद है, "जो लोग मुझसे अनन्य भक्ति के साथ हमेशा मेरी पूजा करते हैं, मेरे रूप का ध्यान करते हैं—उनके लिए मैं उनकी कमी को पूरा करता हूँ और उनकी संपत्ति की रक्षा करता हूँ।" यह श्लोक दर्शाता है कि श्रीकृष्ण अपने समर्पित भक्तों की आवश्यकताओं की व्यक्तिगत रूप से देखभाल करते हैं, उनके आध्यात्मिक और भौतिक कल्याण को सुनिश्चित करते हैं। |
9. श्रीकृष्ण भगवान की सर्वव्यापकता और परमतत्व की अवधारणा को कैसे समझाते हैं? ॐ: श्रीकृष्ण बताते हैं कि वे सर्वव्यापी (सृष्टि के भीतर मौजूद) और परमतत्व (सृष्टि से परे) दोनों हैं। वे कहते हैं, "सभी प्राणी मुझमें हैं, लेकिन मैं उनमें नहीं हूँ" (श्लोक 9.4)। यह विरोधाभासी कथन दर्शाता है कि जबकि भगवान पूरे ब्रह्मांड में व्याप्त हैं, वे इससे अप्रभावित रहते हैं और भौतिक जगत से परे विद्यमान रहते हैं। |
10. भगवद गीता में अन्य देवताओं की पूजा के बारे में क्या कहा गया है? ॐ: अध्याय 9 में, श्रीकृष्ण स्वीकार करते हैं कि लोग विभिन्न देवताओं की पूजा करते हैं, लेकिन वे स्पष्ट करते हैं कि ऐसी सभी पूजा अंततः उन तक ही पहुंचती है, चाहे उपासक इसे समझें या नहीं। वे कहते हैं, "जो कोई भी किसी रूप में मेरी पूजा करना चाहता है, मैं उस विश्वास को दृढ़ और स्थिर बनाता हूँ" (श्लोक 9.23)। हालांकि, वे यह भी बताते हैं कि अन्य देवताओं की पूजा मुक्ति की ओर नहीं ले जाती, क्योंकि केवल सर्वोच्च सत्ता (श्रीकृष्ण) की भक्ति ही ऐसा कर सकती है। |
11. पत्रं पुष्पं फलं तोयं" (पत्रं पुष्पं फलं तोयं) श्लोक का क्या अर्थ है? ॐ: "पत्रं पुष्पं फलं तोयं..." (श्लोक 9.26) श्लोक एक सुंदर अभिव्यक्ति है कि श्रीकृष्ण साधारण भक्ति के कार्यों को कितना मूल्यवान मानते हैं। इसका अनुवाद है, "यदि कोई प्रेम और भक्ति के साथ मुझे एक पत्ता, फूल, फल, या जल अर्पित करता है, तो मैं उसे स्वीकार करूँगा।" यह श्लोक दर्शाता है कि भगवान अर्पण की सामग्री से अधिक उसके पीछे की निष्ठा और प्रेम को महत्व देते हैं, और भक्तों को शुद्ध हृदय से पूजा करने के लिए प्रेरित करते हैं। |
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12. राजविद्या राजगुह्ययोग क्या है? ॐ: राजविद्या राजगुह्ययोग, या "शाही ज्ञान और शाही रहस्य का योग", भगवद्गीता का नौवां अध्याय है। यह दिव्य ज्ञान और इसके गुप्त शिक्षाओं के महत्व को उजागर करता है, जो ईश्वर और आत्मा के बारे में अंतिम सत्य को प्रकट करता है। |
13. भगवद्गीता के अध्याय 9 की मुख्य शिक्षाएँ क्या हैं? ॐ: अध्याय 9 भक्ति और समर्पण के महत्व को सबसे उच्च मार्ग के रूप में उजागर करता है। यह दिव्य संप्रभुता, पूजा के महत्व और यह विचार करता है कि अस्तित्व में सब कुछ ईश्वर की इच्छा का अभिव्यक्ति है। |
14. गीता के 9वें अध्याय में 'माया' (भ्रम) की अवधारणा को कैसे संबोधित किया गया है? ॐ: गीता के 9वें अध्याय में बताया गया है कि भौतिक संसार माया द्वारा शासित है, जो वास्तविकता की सच्चाई को ढंकती है। इस भ्रांति को पहचानना और पार करना दिव्य ज्ञान और भक्ति के माध्यम से आत्मिक प्रगति के लिए आवश्यक है। |
15. इस संदर्भ में 'भक्ति योग' का महत्व क्या है? ॐ: भक्ति योग, या भक्ति का मार्ग, आत्मिक मुक्ति प्राप्त करने के सबसे प्रभावी तरीके के रूप में दर्शाया गया है। इसमें ईश्वर के प्रति गहरी प्रेम की भावना विकसित करना और सभी क्रियाओं को ईश्वर को समर्पित करना शामिल है। |
16. आध्यात्मिक अभ्यास में संदेह और बाधाओं को कैसे पार करें, जैसा कि इस अध्याय में बताया गया है? ॐ: संदेह और बाधाओं को पार करने के लिए ईश्वर पर दृढ़ विश्वास, निरंतर भक्ति अभ्यास और दिव्य मार्गदर्शन की खोज आवश्यक है। दिव्य योजना में विश्वास और आत्मिक अभ्यास के प्रति अनुशासनपूर्ण दृष्टिकोण बनाए रखना महत्वपूर्ण है। |
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17. इस अध्याय में 'माया' (भ्रम) की अवधारणा को कैसे संबोधित किया गया है? ॐ: इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने बताया गया है कि भौतिक संसार माया द्वारा शासित है, जो वास्तविकता की सच्चाई को ढंकती है। इस भ्रांति को पहचानना और पार करना दिव्य ज्ञान और भक्ति के माध्यम से आत्मिक प्रगति के लिए आवश्यक है। |
18. राजविद्या राजगुह्ययोग में 'समर्पण' का महत्व क्या है? ॐ: ईश्वर को समर्पण करना आत्म के अहंकार को पार करने और दिव्य इच्छा के साथ एकता स्थापित करने का एक तरीका है। इसमें पूर्ण विश्वास और ईश्वर की मार्गदर्शन को स्वीकार करना शामिल है, जो आंतरिक शांति और आत्मिक मुक्ति की ओर ले जाता है। |
19. क्या भगवान ने बताया कि सभी लोग भगवान की शरण में क्यों नहीं आते? ॐ: भगवान ने कहा कि माया के प्रभाव में लोग संसार के मोह और ममता में फंसे रहते हैं, जिसके कारण वे भगवान की शरण में नहीं आते। वे अपने अहंकार और कामनाओं के कारण भक्ति के मार्ग से दूर रहते हैं। |
20. भगवान श्रीकृष्ण ने 'ध्यान' के महत्व को कैसे समझाया है? ॐ: भगवान ने ध्यान को आत्मा की शुद्धि का साधन बताया है। ध्यान के माध्यम से व्यक्ति अपने मन को स्थिर कर सकता है और ईश्वर के प्रति अपनी भक्ति को प्रगाढ़ कर सकता है। ध्यान से व्यक्ति के भीतर की शांति और संतोष की भावना जाग्रत होती है। |
21. गीता के अनुसार 'निष्काम कर्म' का क्या महत्व है? ॐ: श्रीमद्भागवत गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने निष्काम कर्म को सबसे उच्च बताया है। निष्काम कर्म वह है जिसमें व्यक्ति कर्म तो अवश्य करता है, लेकिन उस कर्मफल की कामना नहीं करता। ऐसा कर्म भगवान को समर्पित होता है और आत्मा को मुक्त करता है। |
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22. भगवान ने 'अहंकार' के विषय में क्या कहा है? ॐ: भगवान ने अहंकार को सबसे बड़ा दुश्मन बताया है। उन्होंने कहा कि अहंकार के कारण व्यक्ति अपने वास्तविक स्वरूप को भूल जाता है और माया के जाल में फंस जाता है। अहंकार का त्याग ही आत्मज्ञान का पहला कदम है। |
23. राजविद्या राजगुह्ययोग का क्या अर्थ है? ॐ: राजविद्या का अर्थ है 'सर्वोच्च ज्ञान' और राजगुह्य का अर्थ है 'सर्वोच्च रहस्य'। यह अध्याय भगवान श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को दिए गए ज्ञान का सार प्रस्तुत करता है, जिसमें भगवान ने भक्ति मार्ग की महत्ता और उसके प्रभावों का वर्णन किया है। |
24. इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को क्या विशेष शिक्षा दी है? ॐ: भगवान श्रीकृष्ण ने इस अध्याय में अर्जुन को बताया कि भक्ति मार्ग से ईश्वर को प्राप्त किया जा सकता है। उन्होंने समझाया कि सभी कर्मों का फल भगवान को अर्पित करने से आत्मा शुद्ध होती है और मुक्ति प्राप्त होती है। |
25. भगवान ने इस अध्याय में अपने स्वरूप का वर्णन कैसे किया है? ॐ: भगवान श्रीकृष्ण ने गीता के अध्याय 9 में यह स्पष्ट कहा है कि वे ही अनादि, अविनाशी और सर्वशक्तिमान हैं। वे ही सृष्टि के निर्माता, पालक और संहारक हैं। उन्होंने कहा कि वे सब कुछ में व्याप्त हैं और उनके बिना कुछ भी अस्तित्व में नहीं है। |
26. क्या राजविद्या राजगुह्ययोग केवल योगियों के लिए है? ॐ: नहीं, यह ज्ञान केवल योगियों के लिए ही नहीं, बल्कि हर व्यक्ति के लिए है जो भगवान के प्रति श्रद्धा और भक्ति रखता है। इसमें बताया गया है कि भगवान को भक्ति से प्राप्त किया जा सकता है, चाहे वह कोई भी व्यक्ति हो। |
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27. क्या भगवान ने कर्मयोग को भी इस अध्याय में महत्त्व दिया है? ॐ: हाँ, भगवान ने इस अध्याय में बताया है कि सभी कर्मों को भगवान को अर्पित करना चाहिए। ऐसा करने से व्यक्ति को कर्मों के फल की चिंता नहीं होती और वह निःस्वार्थ भाव से अपने कर्तव्यों का पालन करता है। |
28. 'माया' का क्या अर्थ है और भगवान ने इसे कैसे वर्णित किया है? ॐ: भगवान श्रीकृष्ण ने 'माया' को अपनी दिव्य शक्ति बताया है, जिससे यह सारा संसार भ्रमित होता है। उन्होंने कहा कि यह माया बहुत शक्तिशाली है और केवल वही व्यक्ति इसे पार कर सकता है जो भगवान की शरण में जाता है। |
29. क्या भगवान ने कहा है कि कोई भी व्यक्ति उन्हें प्राप्त कर सकता है? ॐ: हाँ, भगवान ने स्पष्ट रूप से कहा है कि कोई भी व्यक्ति, चाहे वह किसी भी वर्ण, जाति या अवस्था का हो, भगवान को भक्ति के माध्यम से प्राप्त कर सकता है। उन्होंने कहा कि भक्ति का मार्ग सभी के लिए खुला है। |
30. भगवान ने 'ईश्वर में विश्वास' के महत्व को कैसे समझाया है? ॐ: भगवान ने कहा कि जो व्यक्ति ईश्वर में अटल विश्वास रखता है और समर्पण के साथ उनकी शरण में आता है, वह न केवल माया से मुक्त होता है बल्कि जीवन के सभी कष्टों से भी पार हो जाता है। |
31. इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को क्या विशेष शिक्षा दी है? ॐ: भगवान श्रीकृष्ण ने इस अध्याय में अर्जुन को बताया कि भक्ति मार्ग से ईश्वर को प्राप्त किया जा सकता है। उन्होंने समझाया कि सभी कर्मों का फल भगवान को अर्पित करने से आत्मा शुद्ध होती है और मुक्ति प्राप्त होती है। |
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32. 'अनन्य भक्ति' का क्या महत्व है? ॐ: राजविद्या राजगुह्ययोग में भगवान श्रीकृष्ण ने 'अनन्य भक्ति' को सर्वोपरि बताया है। इसका अर्थ है, भगवान की ओर एकनिष्ठ प्रेम और समर्पण, जो मनुष्य को सांसारिक बंधनों से मुक्त करता है। |
33. क्या भगवान ने कहा है कि व्यक्ति को अपने कर्मों के परिणाम की चिंता नहीं करनी चाहिए? ॐ: हाँ, भगवान ने कहा कि व्यक्ति को अपने कर्मों के परिणाम की चिंता नहीं करनी चाहिए। उसे केवल अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए और सभी कर्मों को भगवान को समर्पित कर देना चाहिए। ऐसा करने से व्यक्ति कर्मबंधन से मुक्त हो जाता है। |
34. भगवान ने 'भक्ति' को कैसे परिभाषित किया है? ॐ: भगवान ने भक्ति को प्रेम, श्रद्धा और समर्पण का स्वरूप बताया है। भक्ति वह माध्यम है जिससे व्यक्ति भगवान के करीब आता है और मोक्ष की प्राप्ति करता है। यह प्रेमपूर्ण समर्पण ही व्यक्ति को सांसारिक बंधनों से मुक्त करता है। |
35. 'मोह' के प्रभाव से व्यक्ति कैसे मुक्त हो सकता है? ॐ: भगवान ने कहा कि मोह से मुक्त होने का सबसे सरल मार्ग भगवान की शरण में जाना है। जब व्यक्ति भगवान के प्रति प्रेम और समर्पण करता है, तो मोह और माया का प्रभाव धीरे-धीरे समाप्त हो जाता है। |
36. इस अध्याय में भगवान ने 'अतिरिक्त पूजा-पाठ' की आवश्यकता क्यों नहीं बताई? ॐ: भगवान ने कहा कि उन्हें केवल सच्ची भक्ति की आवश्यकता है। उन्होंने कहा कि किसी विशेष पूजा-पाठ की आवश्यकता नहीं है, बल्कि सच्चे मन से भगवान को याद करना ही पर्याप्त है। वे केवल व्यक्ति की भावना को देखते हैं, न कि उसकी बाहरी क्रियाओं को। |
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37. भगवान ने 'ध्यान' के महत्व को कैसे समझाया है? ॐ: भगवान ने ध्यान को आत्मा की शुद्धि का साधन बताया है। ध्यान के माध्यम से व्यक्ति अपने मन को स्थिर कर सकता है और ईश्वर के प्रति अपनी भक्ति को प्रगाढ़ कर सकता है। ध्यान से व्यक्ति के भीतर की शांति और संतोष की भावना जाग्रत होती है। |
38. 'भौतिक सुख' का क्या महत्व है? ॐ: भगवान ने कहा कि भौतिक सुख केवल अस्थायी हैं और आत्मा के स्थायी सुख का साधन नहीं हैं। उन्होंने कहा कि व्यक्ति को भौतिक सुखों की ओर आकर्षित होने की बजाय आत्मिक सुख की ओर अग्रसर होना चाहिए। |
39. 'भक्ति मार्ग' के माध्यम से क्या व्यक्ति मोक्ष प्राप्त कर सकता है? ॐ: हाँ, भगवान ने स्पष्ट रूप से कहा है कि भक्ति मार्ग के माध्यम से व्यक्ति मोक्ष प्राप्त कर सकता है। भक्ति से ही आत्मा की शुद्धि होती है और व्यक्ति परमात्मा से मिलन के लिए तैयार होता है। |
40. भगवान श्रीकृष्ण ने 'सृष्टि' के संचालन को कैसे समझाया? ॐ: भगवान श्रीकृष्ण ने कहा कि वे ही इस सृष्टि के निर्माता, पालक और संहारक हैं। सृष्टि के सभी कार्य उनके द्वारा ही संचालित होते हैं, और वे ही इस जगत के कर्ता-धर्ता हैं। सभी जीव-जन्तु और पदार्थ उन्हीं की शक्ति से संचालित होते हैं। |
🚩🚩🚩ॐ नमो भगवते वासुदेवाय नमः 🚩🚩🚩
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